Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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रा.
या
सादादम.
भी चैतन्यरूप कार्य की उत्पत्तिका कर्ता हो तो गधेके सींग भी उसके कर्ता होने चाहिये । इसलिये चैतन्यकी उत्पत्ति पृथिव्या
दिकोसे नहीं होसकती है। ॥१६६॥
hd कुतस्तर्हि सुप्तोत्थितस्य तदुदयः? असंवेदनेन चैतन्यस्याऽभावात्।नजाग्रदवस्थाऽनुभूतस्य स्मरणात् । असंवे- 10
दनं तु निद्रोपघातात्। कथं तर्हि कायविकृतौ चैतन्यविकृतिः? नैकान्तः श्वित्रादिना कश्मलवपुपोऽपि वुद्धिशुद्धे, अविकारे च भावनाविशेषतःप्रीत्यादिभेददर्शनात् शोकादिना बुद्धिविकृतौ कायविकाराऽदर्शनाच्च । परिणामिना विना च न कार्योत्पत्तिः। न च भूतान्येव तथा परिणमन्ते; विजातीयत्वात् काठिन्यादेरनुपलम्भात् ।
शंका-पृथिव्यादि भूतोसे चैतन्यकी उत्पत्ति न मानकर आत्मासे ही माननेपर भी जो जीव सोतेसे उठता है उसके फिरसे चैतन्यकी उत्पत्ति कहांसे होगी ? क्योंकि पूर्व चैतन्यका तो सोते समय नाश हो चुकता है। और यह ऊपर तुमने ही कहा है कि; जिसमें जिस शक्तिका अभाव है उसमें उसकी उत्पत्ति उपादान कारण बिना कदापि नहीं होसकती है। उत्तर-यह चावाककी शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जो जागृत अवस्थामे अनुभव किया था उसीका सोतेसे उठनेपर स्मरण होता है । सोते समय भी |
चैतन्य शक्तिका नाश नहीं होजाता है किंतु निद्राके तीब्र उदयसे उस चैतन्यका आच्छादन होजाता है। कदाचित् शंका हो कि ५ कायका हास होनेके साथ चैतन्यका भी हास क्यों होता है? परंतु यह शंका उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा ही सर्वथा नियम |
नहीं है कि कायमें विकार हो तो बुद्धिमें भी विकार होता ही हो। जिसके श्वेत कोढ होता है उसकी भी बुद्धि खच्छ देखी जाती है। और जहां कायमें विकार कुछ होता ही नहीं है तहां भी जिसमें बड़ा रागथा उसमेंसे वैराग्य आदिक भावना भानेपर बुद्धि विरक्त होते दीखती है तथा जिसमें पहिले द्वेष था उसमें प्रीति होते दीखती है । इसी प्रकार शोकादिके कारण बुद्धि तो मलिन । होते दीखती है परंतु शरीरमें कुछ अंतर पड़ता ही नहीं है। इस प्रकार शरीरके साथ तो ज्ञानका अन्वयव्यतिरेक बनता नहीं है
परंतु जो परिणाम होता है वह किसी न किसी परिणामीका आलंबन लिये बिना निर्हेतुक नहीं हो सकता है इसलिये ज्ञानरूप क परिणामका मूल आधार कोई दूसरी वस्तु है अवश्य । और पृथिव्यादिकोका चैतन्यरूप परिणमन होना मानना ठीक नहीं
है। क्योंकि पृथिव्यादिक जड़ जातिके है और ज्ञान जड़से उलटा चैतन्य जातिका है । विजातीयसे विजातीयकी उत्पत्ति कभी 2
॥१६६॥