Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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रा.जै.शा.
याद्वादम ॥२१७॥
न पुनस्तदुद्धर्तुम्। अतः कारणात्। कुतः कारणात्? कुमतध्वान्तार्णवान्तःपतितभुवनाऽभ्युद्धारणाऽसाधारणसामर्थ्य- लक्षणात्।हेत्रातस्त्रिभुवनपरित्राणप्रवीण!त्वयि काक्वाऽवधारणस्य गम्यमानत्वात् त्वय्येव विपये,न देवान्तरे कृतधियः[ करोतिरत्र परिकर्मणि वर्तते । यथा हस्तौ कुरु पादौ कुरु इति । कृता परिकार्मिता तत्त्वोपदेशपेशलतत्तच्छास्त्राभ्यासप्रकपेण संस्कृता धीवुद्धिर्यपां ते कृतधियश्चिद्रूपाः] पुरुषाः कृतसपर्याः। प्रादिकं विनाप्यादिकर्मणो गम्यमानत्वात् कृता कर्तुमारब्धा सपर्या सेवाविधियस्ते कृतसपर्याः। आराध्यान्तरपरित्यागेन त्वय्येव सेवाहेवा. कितां परिशीलयन्ति । इति शिखरिणीच्छन्दोऽलंकृतकाव्यार्थः॥
समाप्ता चेयमन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तवनटीका ॥
अन्य धर्मोके प्रवर्तक लोग कप, छेद, ताप रूप तीन परीक्षाओंद्वारा विशुद्ध वचन बोलनेवाले नही हे इसलिये वे लोग जगत्को महामोहमयी अंधकारमें गिरा तो सकते है परंतु उनसे जीवोंका उद्धार होना असभव है । नाना प्रकारके कुमतरूपी समुद्री |
पडे हुए लोगोंका उद्धार करनेमे असामान्य सामर्थ्यके धारक होनेसे, हे त्रिजगदुद्वारक प्रभो ! अन्य देवोंकी नहीं कितु आपकी A ही विद्वानोंने सेवा करना प्रारंभ किया है । ' कृतधियः' शब्दका अर्थ विद्वान् है। क्योंकि, जिनमें तत्वोपदेश भलेप्रकार
हो ऐसे शास्त्रोंका अभ्यास अत्यंत करनेसे जिनकी बुद्धि निर्मल होगई है उनको ‘कृतधियः' या ज्ञानी कहते है। यहांपर 'कृ' धातुका अर्थ परिकर्म है। जैसे हाथोंको कर, पैरोको कर' इन वाक्योंका अर्थ हाथ पैरोको ठीक करना होता है । सेवा | G करना प्रारंभ किया है ऐसा अर्थ ' कृतसपर्याः ' शब्दका होता है । इसमें जो कृतशब्द है उसका अर्थ प्रारंभ करना है । क्योंकि,
'प्र' आदिक कोई उपसर्ग न लगानेपर भी 'कृ'धातुका अर्थ यहां प्रारंभ करना है ऐसी प्रतीति यहा हो जाती है। विद्वानोंने आपकी ही M सेवा करना विचारा है, अन्य किसीकी नहीं ऐसा निश्चय काकुरूप ध्वनिसे होजाता है । अर्थात्-विद्वानोने दूसरोंकी आराधना छोडकर आपकी ही सेवा करनेमें बुद्धि लगाई है। इस प्रकार शिखरिणी छन्दवाले इस अतिम काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ।
इति स्याद्वादमंजरीहिदीभापानुवादः ।
॥२१७॥