Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 438
________________ स्थाद्वादम. राजै.शा. ॥२१६॥ तेन कराले भयङ्करे । यत्रान्धतमसे तत्त्वेऽतत्त्वाभिनिवेशोऽतत्वे च तत्त्वाभिनिवेश इत्येवंरूपो व्यतिकरः संजायत ४ इत्यर्थः। अनेन च विशेपणेन परमार्थतो मिथ्यात्वमोहनीयमेवान्धतमसं तस्यैवेदक्षलक्षणत्वात् । तथा च ग्रन्थान्तरे प्रस्तुतस्तुतिकारपादाः “अदेवे देवबुद्धिा गुरुधीरगुरौ च या।अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात्"। ततोयमर्थो-यथा किलैन्द्रजालिकास्तथाविधसुशिक्षितपरव्यामोहनकलाप्रपञ्चास्तथाविधमौपधीमन्त्रहस्तलाघवादिप्रायं किंचित्प्रयुज्य परिपज्जनं मायामये तमसि मजयन्ति तथा परतीर्थिकैरपि तादृक्प्रकारदुरधीतकुतर्कयुक्तीरुपदिश्य जगदिदं व्यामोहमहान्धकारे निक्षिप्तमिति । ___तत्व अतत्वके मिलादेनेसे तत्वातत्व शब्द होता है। इन तत्वातत्वोका व्यतिकर अर्थात् इनके स्वभावका फेरफार होजानेसे यह अन्धतमस भयंकर होरहा है। इस अन्धतमसके होनेसे तत्व में अतत्वका अभिनिवेश और अतत्वमें तत्वका आग्रह उत्पन्न होता है। अर्थात् इस पूर्वोक्त प्रकारसे बुद्धिकी विपरीतता होजाती है। इस विशेषणके कहनेसे यथार्थ विचारा जाय तो मिथ्यात्वमोहनीय नामक कर्म ही अन्धतमस है ऐसा मालुम पड़ जाता है। क्योंकि उसीका ऐसा खरूप कहागया है। सोई स्तुतिकर्ता श्रीहेमचन्द्रा चार्यने खयं एक दूसरे ग्रन्थमें कहा है "अदेवको देव मानना, अगुरुको गुरु मानना तथा अधर्मको धर्म मानना ही मिथ्यात्व है। 1 क्योंकि, यह मानना विपर्यय है और विपर्ययको ही मिथ्यात्व कहते है" । इससे यह अभिप्राय स्पष्ट हुआ कि अन्य लोगोको ५ व्यामोहित करनेवाली नाना कला जिन्होने सीखी है ऐसे जादूगर, जिससे मनुप्य मोहित हों ऐसे मंत्र औषधि या हाथ की सफाई ५ आदि कुछ दिखाकर जिस प्रकार दर्शक लोगोको मायामयी अंधकारमें पटक देते है उसी प्रकार अन्य दर्शनबालोने भी जिनके * प्रयोगसे लोग विभ्रममें पड़जाय ऐसे अध्ययन किये हुए कुतर्क या कुयुक्तियों का उपदेश करके इस जगत्को विभ्रमरूपी महान् है MM अंधकारमें पटक रक्खा है। तज्जगदुद्धर्तुं मोहमहान्धकारोपप्लवात् क्रष्टुं नियतं निश्चितं त्वमेव । नान्यः शक्तः समर्थः । किमर्थमित्थमेकस्यैव भगवतः सामर्थ्यमुपवर्ण्यते ? इति विशेषणद्वारेण कारणमाह-अविसंवादिवचनः । कपच्छेदतापलक्षणपरीक्षात्रयविशुद्धत्वेन फलप्राप्तौ न विसंवदतीत्येवंशीलमविसंवादि । तथाभूतं वचनमुपदेशो यस्याऽसावविसंवा ॥२१६॥

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