Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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। स्वरूपहानिप्रसङ्ग इति । अवधारणं चात्र भङ्गेऽनभिमतार्थव्यावृत्त्यर्थमुपात्तम् । इतरथाऽनभिहिततुल्यतैवास्य |
वाक्यस्य प्रसज्येत; प्रतिनियतस्वार्थाऽनभिधानात् । तदुक्तं "वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यम-al न्यथाऽनुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित्" । | जैसे घड़ेको द्रव्यकी अपेक्षा देखते है तो पृथिवीपनेकी अपेक्षा अस्तिरूप है किंतु जलादिकी अपेक्षा अस्तिरूप नहीं है। क्षेत्रका विचार करनेपर पटना आदि किसी एक क्षेत्रकी अपेक्षा है बाकी दूसरे क्षेत्रोंकी अपेक्षा नही है । कालसे शीतादि किसी एक समयकी अपेक्षा है। शेष वसन्तादि अन्य समयोंकी अपेक्षा नही है । वस्तुके गुणोंको भाव कहते है। भावों में से किसी एककी अपेक्षा जब विचारते है तो वह घड़ा अपने श्यामादि गुणोंमेंसे विवक्षित एक गुणकी अपेक्षा है किंतु उसीमें रहनेवाले अन्य अविवक्षित गुणोंकी अपेक्षा नहीं है । यदि वस्तुको खकीय द्रव्य क्षेत्र काल भावोंकी अपेक्षा ही अस्तिरूप न मानकर बिना विवक्षाके ही अस्तिरूप माना जाय तो उस वस्तुके पिंडसे औरोंकी व्यावृत्ति नही होसकैगी और फिर इसीलिये उस वस्तुके स्वरूपका अभाव | होजायगा। क्योंकि, वस्तुका खरूप तभीतक स्थिर रहसकता है जबतक उसके खरूपसे दूसरोके खरूपोंमें भिन्नता प्रतीत होती रहै। इसीलिये अमुक वस्तु स्यात् अस्तिरूप ही है इत्यादि वाक्योंमें जो 'ही' शब्दसे निश्चय कराते है वह इसीलिये कि अमुकमें | अमुकके सिवाय अन्य वस्तुओंका भेद प्रतीत होता रहै । यदि 'ही' शब्द नहीं कहाजाय तो किसी एकका निश्चय न होनेसे जिस वस्तुकी इच्छा नही है वह वस्तु भी इच्छित वस्तुके बोलनेपर समझी जाने लगेगी । सो ही कहा है "वाक्यमें जो दूसरोंके निषेधरूप निश्चय करानेवाला 'ही' शब्द बोला जाता है वह अनिच्छित वस्तुओंको इच्छितसे भिन्न समझानेके लिये बोला जाता है
और बोलना ही चाहिये । यदि नही बोलाजाय तो किसी एकके बोलनेसे जो इष्ट है उसके अतिरिक्त जो इच्छित नहीं है वह भी समझा जाने लगेगा । क्योंकि; अमुक है ऐसे विधिरूप वचनसे यदि अमुकका ही विधान और दूसरोंका निपेध होसकै तो निश्चय होजाय परंतु अमुक है इतने वचनमात्रसे दूसरोंका निषेध और अपना विधान हो नहीं सकता है। इसलिये 'ही' के विना किसी वचनसे किसी एक वस्तुका निश्चय नही होसकता है।
तथाप्यस्त्येव कुम्भ इत्येतावन्मात्रीपादाने कुम्भस्य स्तम्भाद्यस्तित्वेनापि सर्वप्रकारेणास्तित्वप्राप्तेः प्रतिनियतस्वरूपानुपपत्तिः स्यात् । तत्प्रतिपत्तये स्यादिति शब्दः प्रयुज्यते । स्यात्कथंचित्स्वद्रव्यादिभिरेवायमस्ति; न परद्रव्या.