Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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||अब कर्तव्य क्या है सो कहते है । उससे निवृत्ति करनेसे ही महान् फल होता है । 'तु' शब्दका अर्थ भेद भी होता है तथाला
निश्चय भी होता है ऐसा कहा है । सो यहांपर जो 'तु' शब्द 'निवृत्तिस्तु' इस स्थानपर पड़ा है उसका अर्थ निश्चय कराना है। | इसीलिये 'निवृत्तिस्तु' शब्दका अर्थ निवृत्ति ही ऐसा किया है। स्वर्ग मोक्षके फलको यहांपर महाफल कहा है। तु शब्दका नि-IN |श्चय अर्थ माननेसे निवृत्ति ही महान् फल देनेवाली है, न कि प्रवृत्ति ऐसा अभिप्राय सूचित होता है । इसीलिये एक दूसरे प्रसंगपर भी कहा है कि "सौ वर्ष पर्यंत प्रत्येक वर्षमें एक मनुष्य यज्ञ करै तथा दूसरा मांसभक्षण नही करै तो उन दोनोंका फल समान होगा। १ । हे युधिष्ठिर ! एकरात्रिपर्यत भी ब्रह्मचर्य व्रत पालनेवालेकी जैसी उत्तम गति होती है तैसी हजार यज्ञ करनेवालेकी भी नही होती। २" मद्यपान तो लोकमें ही निंद्य है उसका निषेध सूत्रानुवादमें करना व्यर्थ है। इस प्रकारसे जो ऐसे अर्थ हो सकते है उनको वे कैसे समझ सकते है जो खयं मतप्रवर्तक तो बनते हैं तथा विद्वान् बनते है परंतु यथार्थमें
विद्वान् नही है । इतना कहना ही वश है। NI अथ केऽमी सप्तभङ्गाः ? कश्चायमादेशभेद इति ? उच्यते । एकत्र जीवादी वस्तुनि एकैकसत्त्वादिधर्मविषयप्र
नवशादविरोधेन प्रत्यक्षादिवाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्च विधिनिषेधयोः पर्यालोचनया कृत्वा स्याच्छब्दलाञ्छितो वक्ष्यमाणैः सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभङ्गीति गीयते । तद्यथा। स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः। स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः। स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः। स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः। स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः । स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः। स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः। तत्र स्यात्कथंचित्स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेणास्त्येव सर्व कुम्भादि न पुनः
परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण । AL सप्तभङ्गी किस प्रकार है और आदेशोका भेद क्या वस्तु है ? उत्तर-जीवादि किसी एक पदार्थमें अस्तित्वादि धर्मों से का किसी एक एक धर्मकी मुख्यतासे प्रश्न उठनेपर पृथक् पृथक् अथवा मिले हुए विधि निषेध धर्मोंका प्रत्यक्षादि प्रमाणकी बाधा