Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादम.
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तीसरा व्यवहार नय ऐसा कहता है कि वस्तु उतने मात्र ही है जिसनी लौकिक व्यवहारमें काम आती है तथा जिस विस प्रकार लोक व्यवहारमें मानी जाती है। जिसका दर्शनमात्र भी नही है तथा जो लोकोंके व्यवहारमें हो भी आती नहीं हो ऐसी वस्तुकी कल्पना करनेका कष्ट उठाने से क्या प्रयोजन जितनी कुछ वस्तु लोकव्यवहारमें आवश्यकीय हैं उन्हीका प्रमाणद्वारा निश्चय होता है । जो लोकव्यवहारके मार्गमें नही आती उसका प्रमाणद्वारा निश्चय भी नहीं होता है । अर्थात् लोकव्यवहारमें जो कुछ वस्तु आवश्यकीय होती है वह विशेषरूप ही होती है । जो अनादिनिधन संग्रहनयका विषयभूत एकत्वरूप सामान्य माना गया है उसका किसी प्रकार भी अनुभव से निश्चय नहीं होता । अर्थात् व्यवहार दृष्टिसे देखते है तो सभी वस्तु विशेषरूप ही कार्यक्षेत्रमें उपयोगी जान पडती है। यदि सामान्य धर्मका भी जीवोको अनुभव होता हो तो वे मनुष्य सर्वदर्शी अर्थात् सर्वज्ञ होजाने चाहिये । क्योंकि; जिस सामान्य धर्मका अवलोकन होना माना जायगा वह सामान्य सभी चराचर त्रिलोक तथा त्रिकालवर्ती पदार्थोमं विद्यमान रहनेवाला है । जो क्षण क्षणमें नष्ट माने जाते हैं ऐसे परमाणुरूप सर्वथा विशेष पदार्थ भी प्रमाणसे निश्चित नहीं होते । क्योंकि, यदि ऐसे पदार्थ भी प्रमाणगोचर होते तो उनमें जीवोंकी प्रवृत्ति भी उसके अनुकूल ही दीखती, परंतु ऐसे पदार्थोंको विषय करनेवाली लोकोंकी प्रवृत्ति नहीं दीखती है इसलिये ऐसे पदार्थ है ही नहीं जिनका कि क्षण क्षणमें विध्वंस होता रहता हो ।
अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तद्गोचरपर्यालोचनेन । तथा हि । पूर्वोत्तरकालभाविनो द्रव्यविवर्त्ताः क्षणक्षयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयन्ति । तन्न ते वस्तुरूपा लोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पन्था गच्छति, कुण्डिका स्रवति, गिरिर्दह्यते, मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादिव्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्यः “ लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः " इति ।
इसलिये लोगोको यही निर्वाध प्रतीति होरही है कि जो वस्तु कुछ समयतक ठहरनेवाली स्थूल पर्याय धार रही हों तथा जिनके द्वारा जल लाने आदिक कर्म होसकते हो वे ही यथार्थमें पदार्थ है। पूर्वोत्तर पर्यायोंकी कल्पना करके उनमें सदा रहनेवाला कोई एक शाश्वता पदार्थ मानना निस्सार है । क्योंकि ऐसा माननेमें कोई भी प्रमाण काम नहीं देता है । और जिसमें प्रमाण प्रवेश 1 नहीं कर सकता है उसका सिद्ध होना कठिन है । तथा ऐसा कोई एक अनाद्यनिधन पदार्थ ही नहीं है जिसमें नाना प्रकार के दृष्टिगोचर पर्याय होते हुए अनुभवमें आते हों। क्योंकि; विचार करनेपर ऐसा कोई भी पदार्थ सिद्ध नहीं होता । पूर्वोत्तर कालमें
रा. शा.
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