Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 408
________________ स्थाद्वादम. राजै.शा. ॥२०१॥ माना जाता है उसीप्रकार संख्या, काल, कारककी तथा पुरुषादिकी अपेक्षा गब्दोमें भेद होनेसे भी अर्थमें भेद मानाजाता है। * संख्या तो एकवचनादि । जैसे पुरुप (एक ) है, पुरुष ( दो अथवा बहुत ) है । कालका भेद अतीतकालादि-जैसे वह है, वह था, वह होगा। कारक कर्ता कर्म करणादि । जैसे 'वह भागता है' इस वाक्यमे तो 'वह' शब्द कर्ताकारक है और 'उसको * खाता है' यहांपर 'उसको' शब्द कर्मकारक है। पुरुष-प्रथम पुरुप, मध्यम पुरुप, उत्तम पुरुष । जैसे 'वह है' यहापर प्रथम पुरुष है; 'तू है' यहांपर मध्यम पुरुष है तथा 'मै हू' यहांपर पुरुष उत्तम है । इसी प्रकार सर्वत्र लिङ्गादिके भेदसे शब्दोंके अर्थमें परस्पर भेद मानाजाता है। समभिरूढस्तु पर्यायशब्दानां प्रविभक्तमेवार्थमभिमन्यते । तद्यथा। इन्दनादिन्द्रः। परमैश्वर्यमिन्द्रशब्दवाच्यं परमार्थतस्तद्वत्यर्थे । अतद्वति पुनरुपचारतो वर्तते। न वा कश्चित् तद्वान्; सर्वशब्दानां परस्परविभक्तार्थप्रतिपादितया आश्रयाश्रयिभावेन प्रवृत्त्यसिद्धेः। ___छट्ठा समभिरूढ नय पर्यायवाची शब्दोंके अर्थको परस्पर भिन्न भिन्न मानता है । इंद्रशब्दका यथार्थ अर्थ परम ऐश्वर्य होता है। इसलिये जिसमें परम ऐश्वर्य संभव हो उसीको इंद्र मानना समभिरूढ नयका कर्तव्य है। क्योकि इन्द्रशब्दका वाच्य अर्थ जो परम K ऐश्वर्य है वह यथार्थमें उसीमें मिलसकता है जिसमे परम ऐश्वर्य सचमुच हो। जिसमें परम ऐश्वर्य नहीं है उसको इंद्र कहना उपचारमात्र है । सचमुचमें देखा जाय तो जिसमें परम ऐश्वर्य नहीं है उसको इन्द्र कहना ही नहीं चाहिये । क्योंकि; यथार्थमें वह परम ऐश्वर्यवाला है ही नही । सो भी क्योकि; जितने शब्द है वे सब अलग अलग अर्थको कहनेवाले होनेसे जिसमें किसी शब्दका वाच्य अर्थ संभव न हो उसमें उस वाच्य अर्थका आश्रयपना होनेमात्रसे ही उस शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होसकती है। / भावार्थ-जब समभिरूढ नयकी अपेक्षा की जाती है तब किसी शब्दकी कहीपर भी इतनेमात्रसे प्रवृत्ति नही हो जाती कि - अमुक पदार्थमें यद्यपि उस शब्दका वाच्यरूप धर्म तो नही है परतु इसमें स्थापना आदिकसे आरोपित होस ता है इसलिये उस व धर्मका आश्रय होनेसे उस शब्दका वाच्य अमुक होसकता है। किंतु समभिरूढ नयकी अपेक्षा किसी भी शब्दकी तभी प्रवृत्ति होती है जब उस शब्दका वाच्यरूप धर्म उस पदार्थमें सचमुच विद्यमान हो। म एवं शकनाच्छकः, पूरणात्पुरन्दर इत्यादिभिन्नार्थत्वं सर्वशब्दानां दर्शयति प्रमाणयति च । पर्यायशब्दा । ॥२०॥

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