Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
View full book text
________________
राजै शा.
याद्वादमं. ॥१९२॥
के अथाऽवस्थाभेदादयं व्यवहारः। न चावस्थासु भिद्यमानास्वपि तद्वतो भेदः, सर्पस्येव कुण्डलार्जवाद्यवस्था
सु । इति चेन्ननु तास्ततो व्यतिरिक्ता अव्यतिरिक्ता वा? व्यतिरेके तास्तस्येति संवन्धाऽभावोऽतिप्रसङ्गात् ? ॐ अव्यतिरेके तु तद्वानेवेति तदवस्थितैव स्थिरैकरूपताहानिः। कथं च तदेकान्तैकरूपत्वेऽवस्थाभेदोऽपि भवेदिति ?
कदाचित् कहो कि सुखदुःखादिरूप अवस्थाओंमें भेद पड़नेसे यह केवल व्यवहार मानाजाता है कि यह पदार्थमें भेद हुआ परंतु वास्तवमें विचारा जाय तो जिस प्रकार सर्प कभी सीधा होजाता है, कभी कुण्डलाकार होजाता है परंतु उन अवस्थाओंके पलटनेसे कुछ सर्पमें फेरफार नहीं मानाजाता है उसीप्रकार अवस्थाओंमें परिवर्तन होनेपर भी अवस्थावाले पदार्थों में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता है। परंतु यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि जो अवस्थाएं पदार्थोंमें बदलती रहती है वे पदार्थोंसे कोई भिन्न चीज है अथवा पदार्थमय ही होती है ? यदि भिन्न चीज हैं तो वे अवस्थाएं उन्ही पदार्थोंकी है जिनसे वे उपजती है ऐसा कहनेके लिये कोंनसा संबन्ध दोनोंके वीचमें दीखता है जिस संबन्धसे ऐसा कहसकै ? और यदि कोई संबन्ध नही है तो वे अवस्थाएं जिसमें नहीं हुई हैं उसकी भी वे अवस्था मानीजावै तो कोन रोकसकता है ? और यदि उस पदार्थमय ही है, भिन्न नहीं है तो 9 अवस्थाओंमें परिवर्तन होनेसे उस पदार्थमें भी परिवर्तन होना मानना ही चाहिये। इस प्रकार फिर भी नित्यतामें बाधा आपड़ती है । और यदि पदार्थको सर्वथा एकरूप ही माने तो अवस्थाओंमें परिवर्तन होना भी किस प्रकार होसकता है ?
किं च सुखदुःखभोगौ पुण्यपापनिर्वत्त्यौं । तन्निर्वर्तनं चार्थक्रिया । सा च कूटस्थनित्यस्य क्रमेणाऽक्रमेण वा नोपपद्यत इत्युक्तप्रायम् । अत एवोक्तं "न पुण्यपापे" इति । पुण्यं दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभं कर्म । पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म । ते अपि न घटेते प्रागुक्तनीतेः। तथा न बन्धमोक्षौ । वन्धः कर्मपुद्गलैः सह प्रतिप्रदेश
मात्मनो वन्ह्ययःपिण्डवदन्योऽन्यसंश्लेषः। मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयः । तावप्येकान्तनित्ये न स्याताम् । वन्धो हि संयोधू गविशेषः। स चाऽप्राप्तानां प्राप्तिरितिलक्षणः। प्राक्कालभाविनी अप्राप्तिरन्यावस्था । उत्तरकालभाविनी प्राप्तिश्चा
न्या। तदनयोरप्यवस्थाभेददोषो दुस्तरः। . इसीप्रकार सुखदुःखोंका भोगना जो होता है वह पुण्यपापके उदयसे होता है और पुण्य पापकी उत्पत्ति शुभाशुभ क्रियाओंके ॐ करनेसे होती है । इसलिये जो आत्मा सदा कूटस्थ एकरूप है उसमें न तो क्रमसे और न एकसाथ ही वह क्रिया होसकती है जिसके
॥१९२॥