Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 399
________________ है मालम्बते । न चास्य दुर्नयत्वं धर्मान्तराऽतिरस्कारात् । न च प्रमाणत्वं स्याच्छब्देनाऽलाञ्छितत्वात् । स्यात्सदिति | स्यात्कथंचित्सद्वस्तु इति प्रमाणम् । प्रमाणत्वं चास्य दृष्टेष्टाऽवाधितत्वाद्विपक्षे बाधकसद्भावाच्च । सर्व हि वस्तु | स्वरूपेण सत् पररूपेण चाऽसदित्यसकृदुक्तम् । सदिति दिङ्मात्र दर्शनार्थम् । अनया दिशा असत्त्वनित्यत्वाऽनित्य| त्ववक्तव्यत्वाऽवक्तव्यत्वसामान्य विशेषाद्यपि बोद्धव्यम् । अन्य धर्मो उदासीन होकर सत्यधर्मका प्रतिपादन करनेवाला नय समिचीन नय कहा जाता है । इसका उदाहरण जैसे कि 'घड़ा है' ऐसा वचन कहनेवाला घड़े में रहनेवाले बाकीके अनंतो धर्मोंकी तरफ हस्तीके देखनेके समान उदासीनता से देखता हुआ विवक्षित अस्तित्व धर्मको मुख्य देखता है । यह नय भी यद्यपि एक धर्मको ही मुख्यतासे देखता है तो भी दुर्नय नही है । क्योंकि; बाकी के धर्मोंको चाहे उदासीनतासे ही देखता है परंतु तो भी निषेध नहीं करता है । इस नयको प्रमाण ज्ञान भी नही कह सकते है । क्योंकि; स्यात्शब्द छोड़कर इसको बोला है । अर्थात् प्रमाणज्ञान तभी समझा जाता है जब स्यात् शब्द अथवा कथंचित् शब्द लगाकर कहा जाय । अमुक वस्तु कथंचित् सत् है ऐसे ही ज्ञानको प्रमाण कहते है । ऐसे ज्ञानको प्रमाण इसलिये कहते है कि | इसमें प्रत्यक्ष परोक्षादि किसी ज्ञानसे भी बाधा नही आती है तथा जो प्रमाणद्वारा निश्चय हो जाता है उससे विरुद्ध मानने में | अनेक प्रकारकी बाधा दीख पड़ती है । यह बात स्थान स्थानपर कही है कि सभी वस्तु अपने द्रव्यादि चतुष्टयखरूपकी अपेक्षा तो | सत् है तथा परद्रव्यादि चतुष्टयखरूपकी अपेक्षा असत् है । सत् धर्म तो यहां दृष्टान्तमात्र दिखाया है किंतु इसी प्रकार असत्वधर्म तथा नित्यत्व, अनित्यत्व, वक्तव्यत्व, अवक्तव्यत्व, सामान्य, विशेषादि धर्म भी समझलेने चाहिये । इत्थं वस्तुस्वरूपमाख्याय स्तुतिमाह - यथार्थदर्शीत्यादि । दुर्नीतिपथं दुर्नयमार्ग तुशब्दस्य अवधारणार्थस्य | भिन्नक्रमत्वात्त्वमेव आस्थस्त्वमेव निराकृतवान् । न तीर्थान्तरदैवतानि । केन कृत्त्वा ? नयप्रमाणपथेन । नयप्रमाणे उक्तस्वरूपे । तयोर्मार्गेण प्रचारेण । यतस्त्वं यथार्थदर्शी । यथार्थोऽस्ति तथैव पश्यतीत्येवंशीलो यथार्थदर्शी । वि - | | मलकेवलज्योतिषा यथावस्थितवस्तुदशीं । तीर्थान्तरशास्तारस्तु रागादिदोषकालुष्यकलङ्कितत्वेन तथाविधज्ञाना| भावान्न यथार्थदर्शिनः । ततः कथं नाम दुर्नयपथमथने प्रगल्भन्ते ते तपस्विनः ? इस प्रकार वस्तुका स्वरूप कहकर स्तुतिकर्ता 'यथार्थदर्शी ' इत्यादि वचनद्वारा भगवत्की स्तुति करते है । 'तु' शब्द उप

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