Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 396
________________ सादादमः सम्यग्ज्ञानादिभावप्राणव्यपरोपणेन व्यापादितम् । तत्रायस्वेत्याशयः । सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणाः प्रावच-16 रा.जै.शा. निकैीयन्ते । अत एव सिद्धेष्वपि जीवव्यपदेशः । अन्यथा हि जीवधातुः प्राणधारणार्थेऽभिधीयते । तेषां च ॥१९५॥ दशविधप्राणधारणाऽभावादजीवत्वप्राप्तिः । सा च विरुद्धा । तस्मात्संसारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाज्जीवाः सिद्धाश्च ज्ञानादिभावप्राणधारणादिति सिद्धम् । दुर्नयस्वरूपं चोत्तरकाव्ये व्याख्यास्यामः । इति काव्यार्थः। इस दुर्नीति वादरूपी खड्गके द्वारा एक दोका नहीं किंतु अशेष जगतका घात होरहा है । 'एवं' शब्द जो पड़ा है उसका अर्थ अनुभवसिद्ध होता है। श्लोकमें जो 'जगदपि' ऐसा शब्द पड़ा है उसमेंसे 'अपि' शब्द 'अशेष' शब्दके साथ लगानेसे अर्थ ठीक बनता है । भावार्थ-एक दो नहीं किंतु अशेष ही जगत् अर्थात् त्रैलोक्यमें होनेवाले जीवोका समूह इसने विलुप्त करदिया है । अर्थात् सम्यग्ज्ञानरूप भावप्राणोंका घातकर उन जीवोंका नाश करदिया है। प्राणों के घात होनेका ही नाम मृत्यु है । एक द्रव्यप्राण और एक भावप्राण ऐसे प्राण दोप्रकार हैं । ५ इंद्रिय, ३ बल (मन, वचन, काय), १ श्वासोच्छ्रास तथा १ आयु इन दशको द्रव्यप्राण कहते है । सम्यग्ज्ञानादिकोको प्रवचनके ज्ञाताओने भावप्राण कहा है। जो प्राण धारण करते है वे जीव कहे जाते है । प्राण धारणकरना जिसका अर्थ है ऐसे जीव धातुसे जीव शब्द बनता है । ससारी जीव तो द्रव्यप्राणोंसे जीते है इसलिये उनको जीव कहते है । सिद्धात्मा भावप्राणों की अपेक्षा जीते है इसलिये उनको भी जीव कहसकते है। यदि द्रव्य प्राणोंके धारण करनेवाले ही जीव कहलाते तो सिद्ध जीव जीव ही नही कहे जाते । परंतु सिद्धोकों जीव नही कहना सर्वथा विरुद्ध है। इसलिये संसारी जीवोंको दशप्रकार द्रव्यप्राणोंकी अपेक्षा तथा मुक्त जीवोंको भावप्राणों की अपेक्षा जीव कहना चाहिये ऐसा सिद्ध है । दुर्नयका खरूप इस काव्यमें स्पष्ट नहीं किया है किंतु आगेके काव्यमें कहेगे । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। ___ साम्प्रतं दुर्नयनयप्रमाणप्ररूपणद्वारेण “प्रमाणनयैरधिगमः" इति वचनाजीवाऽजीवादितत्त्वाऽधिगमनि| बन्धनानां प्रमाणनयानां प्रतिपादयितुः स्वामिनः स्याद्वादविरोधिदुर्नयमार्गनिराकरिष्णुमनन्यसामान्य वचनातिशयं स्तुवन्नाह । ॥१९५॥ अब खोटे नय, सच्चे नय तथा प्रमाणके खरूपका प्रतिपादन करते हुए आचार्य अर्हन् भगवान्की इस प्रकार स्तुति करते है किप्रमाण नयसे जीवादि पदार्थोंका निश्चय होता है इस अभिप्रायवाले " प्रमाणनयैरधिगमः" इस वचनके अनुसार जिन प्रमाण

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