Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
View full book text
________________
स्याद्वादमं.
राजै.शा.
॥१८९॥
य एव दोषाः किल नित्यवादे विनाशवादेऽपि समास्त एव ।
परस्परध्वंसिषु कण्टकेषु जयत्यधृष्यं जिनशासनं ते ॥२६॥ मूलार्थ सर्वथा नित्यपक्ष माननेमें जैसे दोप संभवते है तैसे ही सर्वथा अनित्य मानने में भी संभवते है । भावार्थ-जिस
रि सर्वथा अनित्यवाद माननेमें नित्यवादी कुछ दूषण दिखाता है उसीप्रकार सर्वथा नित्यपक्षमें अनित्यपक्षवाला भी कुछ दूषण 7 दिखाता है इसलिये एकदूसरेसे ही उन दोनोंका निराकरण होजाता है । इस प्रकार हे भगवन् । कंटकोका नाश परस्पर ही होजा-198
नेपर आपका जिनशासन विनापरिश्रम यों ही विजयलक्ष्मीको प्राप्त होरहा है। __ व्याख्या-किलेति निश्चये। य एव नित्यवादे नित्यैकान्तवादे दोपा अनित्यैकान्तवादिभिः प्रसञ्जिताः क्रम५ योगपद्याभ्यामर्थक्रियाऽनुपपत्त्यादयस्त एव विनाशवादेऽपि क्षणिकैकान्तवादेऽपि समास्तुल्या नित्यैकान्तवादि
भिः प्रसज्यमाना अन्यूनाधिकाः । तथा हि । * व्याख्यार्थ-लोकमें जो 'किल' शब्द पड़ा है उसका अर्थ 'निश्चयसे' ऐसा होता है । जो दोप सर्वथा नित्यपक्ष मान
नेमें सर्वथा अनित्य पक्ष माननेवालोंने दिखाये है वे ही अनित्यपक्षमें अर्थात् सर्वथा क्षणिकपक्ष माननेंमें नित्यपक्षवालोने दिखाये है।
वे ही कहनेसे ऐसा अभिप्राय है कि दोनो पक्षोंमें समान ही दोप संभव है; न तो हीन हैं और न अधिक । कमसे अथवा एकसाथ * प्रयोजनीभूत क्रियाओंका न होसकना इत्यादि वे दूषण है।
नित्यवादी प्रमाणयति 'सर्व नित्यं सत्त्वात् । क्षणिके सदसत्कालयोरर्थक्रियाविरोधात्तल्लक्षणं सत्त्वं नावस्थां वनातीति । ततो निवर्तमानमनन्यशरणतया नित्यत्वेऽवतिष्ठते । तथा हि । क्षणिकोऽर्थः सन्वा कार्य कुर्यादसन्वा ? गत्यन्तराऽभावात् । न तावदाद्यः पक्षः, समसमयवर्तिनि व्यापाराऽयोगात् सकलभावानां परस्परं कार्यकारणभावप्राप्त्याऽतिप्रसङ्गाच्च । नापि द्वितीयः पक्षः क्षोदं क्षमते; असतः कार्यकरणशक्तिविकलत्वात् । अन्यथा शशविपाणादयोऽपि कार्यकरणायोत्सहरन् विशेषाऽभावात्' इति । नित्यवादी अनित्यवादीसे कहता है कि सत् होनेके कारण सपूर्ण वस्तु नित्य ही है। जो नित्य होता है वही सत् या अस्तिरूप
॥१८॥