Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्थाद्वादमा
धः । न हि यदेव विधेरधिकरणं तदेव प्रतिषेधस्याधिकरणं भवितुमर्हति एकरूपतापत्तेः । ततो वैयधिकरण्यमपि राजै.शा.
भवति । अपरं च येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं येन च विशेषस्य तावप्यात्मानौ एकेनैव स्वभावेनाधिकरोति ।। ॥१८६॥ द्वाभ्या वा स्वभावाभ्याम् ? एकेनैव चेत्तत्र पूर्ववद्विरोधः । द्वाभ्यां वा स्वभावाभ्यां सामान्यविशेषाख्यं खभा
|वद्वयमधिकरोति तदाऽनवस्था। तावपि स्वभावान्तराभ्या तावपि स्वभावान्तराभ्यामिति । । मूल स्तुतिमें एक विरोधका ही निराकरण किया है परंतु वह संकेतमात्र है, इसलिये वादीके दिखाये हुए वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति तथा विषयव्यवस्थाहानि इन दोषोंका भी निराकरण ऊपरसे विचारना चाहिये । वस्तु सामान्यविशेषात्मक है ऐसा हमारे कहनेपर अन्यवादी दोष उठाते है कि विधि तथा निषेधरूप जो सामान्य और विशेष धर्म हैं वे शीत उष्णताके समान एक स्थानमें नही रहसकते है इसलिये विरोध सभव होता है।जो वस्तु अस्तित्वका आधार है वही प्रतिषेध
धर्मका आधार नहीं होसकती, नही तो विधि और निषेध एक ही होजायंगे। इस प्रकार वैयधिकरण्य दोष भी आता है। और जिस Y के स्वरूपसे वस्तु सामान्य धर्मका आश्रय है तथा जिस स्वरूपसे विशेष धर्मका आश्रय है उन दोनों खरूपोंको वह जो वस्तु अपने 1 अधीन रखती है सो अपने किसी एक ही स्वभावसे अथवा जुदे जुदे खभावोंसे ? यदि एक ही स्वभावसे उन दोनो स्वरूपोंको
धारती है तो पूर्व कहे अनुसार विरोध सभव है और जुदे जुदे खभावोंसे यदि उन सामान्यविशेषरूप दो खभावोंको वह वस्तु V अपनेमें धारती हो तो आगे भी ऐसे ही दो दो खभाव मानने पड़ेंगे इसलिये कहीं स्थिति ही न रहेगी। क्योंकि, उन दो खभा
वोंको धारण करनेकेलिये भी अन्य दो खभाव मानने ही चाहिये तथा फिर भी उन दो खभावोंको धारनेकेलिये दूसरे दो खभाव मानने चाहिये । इस प्रकार कही भी ठिकाना नही रहेगा । इसीको अनवस्था दोष कहते है।
येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं तेन सामान्यस्य विशेषस्य च, येन च विशेपस्याधिकरणं तेन विशेषस्य सामान्यस्य चेति संकरदोषः । येन स्वभावेन सामान्यं तेन विशेषो, येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकरः । ततश्च वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्तेः संशयः। ततश्चाऽप्रतिपत्तिः । ततश्च प्रमाणविषयव्यवस्थाहानिरिति । एते
च दोषाः स्याद्वादस्य जात्यन्तरत्वान्निरवकाशा एव । अतः स्याद्वादमर्मवेदिभिरुद्धरणीयास्तत्तदुपपत्तिभिरि | स्वतन्त्रतया निरपेक्षयोरेव सामान्यविशेषयोर्विधिप्रतिषेधरूपयोस्तेपामवकाशात् ।
६॥