Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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दिखाया है उसको नहीं समझकर ही वादी विरोधसे भयभीत होरहे हैं। अर्थात् सूक्ष्मरूपसे विचार न करनेसे अस्तित्व नास्तित्वादिक धर्मोका बाह्य स्थूल विचार करनेवाली दृष्टिके द्वारा जो परस्पर साथ न रहसकनेरूप दोष संभवता है उससे वे त्रस्त होचुके है। इसीलिये वे जड़ है अर्थात् भयका सच्चा कारण न होनेपर भी वे विना हेतु अज्ञानी पशुओंके समान डरते है इसलिये वे परवादी मुर्ख हैं और एकांतपक्ष धारण करनेके कारण खिन्न होरहे हैं। अर्थात् उन सत्वादि धर्मोमेसे अनिच्छित धर्मका सर्वथा निषेध करके इच्छित धर्मको सिद्ध करनेरूप जो एकान्त पक्षपात है उसके धारनेसे जैसे कोई हतशक्ति होकर पड़जाता है उसी प्रकार अनेक दोष दीखनेपर हताश होकर गिर पड़ते है। और गिरते हुए न्यायमार्गका आक्रमण करनेमें असमर्थ होनेसे उस
मार्गमें गमन करते हुए पथिको द्वारा पददलित होते हैं। NI यद्वा पतन्तीति प्रमाणमार्गतश्च्यवन्ते । लोके हि सन्मार्गच्युतः पतित इति परिभाष्यते । अथ वा यथा वज्रा
दिप्रहारेण हतः पतितो मूर्छामतुच्छामासाद्य निरुद्धवाक्प्रसरो भवति एवं तेऽपि वादिनः स्वाऽभिमतैकान्तवादेन । का युक्तिसरणिमननुसरता वज्राशनिप्रायेण निहताः सन्तः स्याद्वादिनां पुरतोऽकिंचित्करा वाङमात्रमपि नोच्चार-1]
यितुमीशत इति। NI अथवा पड़नेका अर्थ न्यायमार्गसे च्युत होना करना चाहिये। जगत्में उसको पतित कहते हैं जो सत्मार्गसे च्युत होजाता है।
अथवा जैसे वज्रादिकसे ताड़ित होनेपर मनुष्य भूमिपर गिर पड़ता है और अधिक मूर्छाको प्राप्त होजानेसे एक वचन भी नही बोल-16 सकता है उसी प्रकार एकान्तपक्षपाती कुवादी भी युक्तिमार्गका अनुसरण न करनेरूप स्वयं माने हुए एकान्तवादरूपी वज्रपातसे
ताड़ित होकर स्याद्वादियोंके सन्मुख निस्तेज हो जाते है और एक वचनका भी उच्चारण नही करसकते है । स्तुतिके जो का 'अप्रबुद्ध्यैव' शब्दमें 'एव' शब्द मिला हुआ है उसका निश्चयरूप अर्थ होता है और उससे उनका ज्ञान सर्वथा मिथ्या ही है; किंतु लेशमात्र भी सच्चा नही है ऐसा सूचित होता है।
अत्र च विरोधस्योपलक्षणत्वाद्वैयधिकरण्यमनवस्था संकरो व्यतिकरः संशयोऽप्रतिपत्तिविषयव्यवस्थाहानिरित्येतेऽपि परोद्भाविता दोषा अभ्यूह्याः। तथा हि । सामान्यविशेषात्मकं वस्त्वित्युपन्यस्ते परे उपालब्धारो भव न्ति । यथा सामान्यविशेषयोविधिप्रतिषेधरूपयोर्विरुद्धधर्मयोरेकत्राऽभिन्ने वस्तुन्यसंभवाच्छीतोष्णवदिति विरो