Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 358
________________ स्थाद्वादम ॥१७६॥ और आगममें भी मांस मद्य मैथुनको जीवोंकी उत्पत्तिका मूलकारण कहा है। "कचेमें पक्केमें पकते हुएमें तथा अन्य भी मांसकी राजै.शा प्रत्येक अवस्थाओमें निगोत जीवोंकी अप्रमाण उत्पत्ति होती रहती है। १। मद्य, मधु, मांसमें तथा चौथे नवनीतमें रगकी अपेक्षा उसीके समान अनतो जंतु उत्पन्न होते है ।२। मैथुन कर्ममें नौ लाख सूक्ष्म जीवोंका घात होना सर्वज्ञ भगवानने कहा है ॐ इसलिये उसका श्रद्धान सदा करना चाहिये । ३" अव योनिके जीवोका विचार करते है। "स्त्रीकी योनिमें द्वीन्द्रिय जीव कभी एक कभी दो कभी तीन इसी प्रकार अधिकसे अधिक कभी कभी नौ लाख तक उत्पन्न हो जाते है। ४ । जैसे अग्निसे तपाई हुई लोहेकी सलाई वासकी नलीमें डालनेसे नलीमें पड़े हुए तिल जल जाते है तैसे ही पुरुष जब संभोग करने लगता ) है तब योनिमें जितने जीव होते है उन सवोका नाश हो जाता है। " साक्षत योनिके द्वीन्द्रिय जीवोंकी संख्या तो धू ऊपर कही। अब रज और वीर्यके मेलसे उत्पन्न होनेवाले पंचेन्द्रियोंकी गिनती कहते हैं । “एक वार नारीका भोग करनेसे उस पू a समय उस गर्भमें पंचेद्रिय मनुष्य कभी कभी नौ लाख पर्यन्त भी एकदम उत्पन्न हो जाते हैं । ६ । उन नौ लाखमेंसे एक या दो 6 तो जी जाते है; अवशिष्ट यों ही नष्ट हो जाते है । ७।" इस प्रकार जीवहिंसाका कारण होनेसे मांसभक्षणादिक निर्दोष नही 1 समझना चाहिये। अथवा भूतानां पिशाचप्रायाणामेषा प्रवृत्तिः। त एवात्र मांसभक्षणादौ प्रवर्तन्ते न पुनर्विवेकिन इति भावः। तदेवं मांसभक्षणादेर्दुष्टतां स्पष्टीकृत्य यदुपदेष्टव्यं तदाह "निवृत्तिस्तु महाफला"। तुरेवकारार्थः “तुः स्याद्भेदेऽवधारणे” इति वचनात् । ततश्चैतेभ्यो मांसभक्षणादिभ्यो निवृत्तिरेव महाफला स्वर्गापवर्गफलप्रदा; न पुनःप्रवृत्तिरपीत्यर्थः। अत एव स्थानान्तरे पठितं “वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। मांसानि च न खादेद्यस्तयोहै स्तुयं भवेत्फलम् । १। एकरात्रोपितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा ऋतुसहस्रेण प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर"। मद्यपाने तु कृतं सूत्रानुवादैस्तस्य सर्वविगर्हितत्वात् । तानेवंप्रकारानर्थान् कथमिव वुधाभासास्तीर्थिका वेदितुमहेन्तीति कृतं प्रसङ्गेन। ॥१७६॥ ____ अथवा "प्रवृत्तिरेपा भूतानां" इसका अर्थ ऐसा करना चाहिये कि, भूत अर्थात् पिशाच राक्षसादिकोंकी ही यह दुष्ट प्रवृत्ति है, वे ही मांसभक्षण आदिक दुष्कर्म करते है, न कि विवेकी मनुष्य । इस प्रकार मासभक्षणादिक दुष्कर्मोको सदोष ठहरा कर

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