Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 373
________________ विरोधं नाऽनुभवतीत्यर्थः । न केवलमसत्त्वं न विरुद्धं किं तु सदवाच्यते च । सच्चाऽवाच्यं च सदवाच्ये।। || तयोर्भावौ सदवाच्यते । अस्तित्वाऽवक्तव्यत्वे इत्यर्थः । ते अपि न विरुद्धे । EL व्याख्यार्थ-चेतन अचेतनरूप पदार्थोंमें रहनेवाला असत्व अर्थात् नास्तित्व धर्म विरोधसहित नहीं है। अर्थात् हमने जो चेतन और जड़रूप संपूर्ण पदार्थोमें नास्तित्व धर्मका आरोपण किया है उसका अस्तित्व धर्मके साथ रहनेसे कुछ विरोध नहीं है। केवल || अस्तित्वके साथ रहनेसे नास्तित्व धर्म ही विरोधरहित हो ऐसा नहीं है किंतु अस्तित्व तथा अवक्तव्य धर्म भी विरोधरहित ही है। अस्तित्वधर्मविशिष्ट वस्तुको सत् कहते है और जो एक साथ विरोधी धर्मोके कारण बोला न जासकै उसको अवाच्य अथवा अवक्तव्य कहते हैं। इन दोनो धर्मोको जब इकठ्ठा बोलते है तब सदऽवाच्य कहते है। इन दोनो धर्मोके भावको जब मिलाकर Jes कहै तो सदवाच्यता कहते है और यदि जुदा जुदा कहै तो सत्त्व तथा अवाच्यत्व अथवा अस्तित्व तथा अवक्तव्यत्व कहते हैं । ये भी दोनो धर्म ऐसे विरोधी नही हैं जो एक वस्तुमें एक साथ न रहसकते हों।। तथा हि । अस्तित्वं नास्तित्वेन सह न विरुध्यते । अवक्तव्यत्वमपि विधिनिषेधात्मकमन्योऽन्यं न विरुध्यते । अथ वा अवक्तव्यत्वं वक्तव्यत्वन साकं न विरोधमुद्वहति । अनेन च नास्तित्वाऽस्तित्वाऽवक्तव्यत्वलक्षणभङ्गत्रयेण|| सकलसप्तभड्या निर्विरोधतोपलक्षिता; अमीषामेव त्रयाणां मुख्यत्वाच्छेषभङ्गानां च संयोगजत्वेनाऽमीष्वेवान्तर्भावादिति । ___ अब ऊपरके कथनको स्पष्ट करते हैं। अस्तित्वधर्मका नास्तित्वधर्मके साथ रहने में विरोध नही है । अवक्तव्यत्व धर्मका विधिया निषेधरूप अस्तित्व तथा नास्तित्व इन दोनो धर्मोके साथ विरोध नही है। अथवा अस्तित्व तथा नास्तित्व धर्म वक्तव्यरूप है इसलिये यों भी कह सकते हैं कि अवक्तव्यत्व धर्मका वक्तव्यत्वधर्मों के साथ रहने में कुछ विरोध नहीं है। इन तीनो| भंगोमें परस्पर अविरोध होनेसे सातो ही भगोमें अविरोध समझ लेना चाहियें। क्योंकि, ये तीन ही भंग मुख्य है, बाकीके IPI चार भंग तो इन्ही तीनोंके संयोगोंसे उपजते हैं इसलिये उनका इन्हीमें अंतर्भाव होजाता है। __नन्वेते धर्माः परस्पर विरुद्धाः। तत्कथमेकत्र वस्तुन्येषां समावेशः संभवति ? इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह "उपाधिभेदोपहितम्" इति । उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकारास्तेषां भेदो नानात्वं तेनोपहितमर्पितम् ( असत्त्वस्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443