Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 364
________________ रा.जै.शा. स्थाद्वादम ॥१७९॥ " अविनाभावी धर्म है । विवक्षाके वश कभी नास्तित्व धर्मको उदासीनरूप देखते हुए अस्तित्व धर्मको प्रधान देखते हैं तथा कभी • अस्तित्व धर्मको अमुख्य रखकर नास्तित्व धर्मको प्रधान मानने लगते है । भावार्थ-इसीलिये एक पदार्थको कभी अस्तिरूप भ कहते है और कभी नास्तिरूप कहते है। "अर्पित तथा अनर्पित नयोंकी अपेक्षासे वस्तुमें भंग हो सकते है" इस प्रकार ग्रन्थकर्ता ओंमें मुख्य श्रीउमास्वामीके वचनानुसार और भी तीसरे आदिक भंगोमें अस्तित्व नास्तित्व धर्मोकी प्रधानता अप्रधानता ॐ समझलेना चाहिये । इस प्रकार दूसरा भग हुआ। तृतीयः स्पष्ट एव । द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्वधर्माभ्यां युगपत्प्रधानतयाऽर्पिताभ्यामेकस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्याऽसंभवादवक्तव्यं जीवादिवस्तु । तथा हि । सदसत्त्वगुणद्वयं युगपदेकत्र सदित्यनेन वक्तुमशक्यं तस्याऽसत्त्वप्रतिपादनाऽसमर्थत्वात् । तथाऽसदित्यनेनापि; तस्य सत्त्वप्रत्यायनसामर्थ्याऽभावात् । न च पुष्पदन्तादिवत्साङ्केतिकमेकं पदं तद्वक्तुं समर्थः तस्यापि क्रमेणार्थद्वयप्रत्यायने सामोपपत्तेः शतृशानयोः संकेतितसच्छन्दवत् । अत एव द्वन्द्वकर्मधारयवृत्त्योर्वाक्यस्य चन तद्वाचकत्वम् । इति सकलवाचकरहितत्वादवक्तव्यं वस्तु युगपत्सदसत्त्वाभ्यां प्रधानभावाप्र्पिताभ्यामाक्रान्तं व्यवतिष्ठते । न च सर्वथाऽवक्तव्यम् । अवक्तव्यशब्देनाप्यनभिधेयत्वप्रसङ्गात् । इति चतुर्थः । शेपास्त्रयः सुगमाभिप्रायाः। तीसरा भग स्पष्ट ही है । अर्थात् जब क्रमसे अस्तित्व और नास्तित्व धर्मकी मुख्यता करते है तब वस्तुका स्वरूप अस्तिनास्तिरूप रहता है । इसलिये वस्तु कथंचित् अस्तिनास्ति ऐसे दोनोरूप है। यह तीसरा भंग हुआ। चौथा भंग कथचित् अवक्तव्यखरूप है। VI जब अस्तित्व नास्तित्व दोनो धर्मोको एक समयमे प्रधान समझते है तब इन परस्परविरुद्ध दोनो धर्मोका एक साथ कहनेवाला कोई भी शब्द न मिलनेसे वस्तुका खरूप अवक्तव्य होजाता है । क्योंकि जितने शब्द हैं उनमेंसे कुछ तो ऐसे है जो वस्तुके किसी ॐ धर्मका अस्तित्वमात्र कहसकते है और कुछ ऐसे है जो नास्तित्वको ही जता सकते है। जो अस्तित्व दिखानेवाले शब्द है वे ना- मैं स्तित्व धर्मको नहीं कह सकते है और जो नास्तित्व धर्मको कहते है उनसे अस्तित्व धर्म कहाजाना असभव है। और जिस प्रकार पुष्पदंत शब्द सकेतित होनेसे किसी विशेषको जतानेवाला है उस प्रकार भी कोई एक शब्द ऐसा संकेतित नहीं है जिसके द्वारा " एक साथ परस्पर विरुद्ध धर्मोंका कहना, समझना होसकता हो ।जो कोई माना भी जाय तो वह क्रमसे ही परस्पर विरुद्ध अर्थोको ॥१७९॥

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