Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 365
________________ कह सकता है, एक साथ नही । जिस प्रकार व्याकरणमें 'शतृ' और 'शान' इन दो प्रत्ययोंकी 'सत्' संज्ञा रक्खी गई है और उसके बोलनेपर 'शत्रू शान' प्रत्यय समझे भी जाते हैं परंतु समझे क्रमसे ही जाते है । 'शतृ' और 'शान' ये दोनो प्रत्यय एक साथ नहीं समझे जाते हैं। या तो 'सत्' संज्ञा सुननेके अनंतर पहिले 'शत्रु' और पीछे 'शान' का बोध होता है और या पहिले 'शान' | पीछे 'शतृ' का । इसीप्रकार द्वन्द्व अथवा कर्मधारय समासके द्वारा परस्पर विरुद्ध धर्मोके वाचक दो शब्दोको मिलाकर एक कर | लेनेके अनंतर भी अथवा एक वाक्यद्वारा परस्पर विरुद्ध दो धर्मोके वाचक दो शब्द बोलनेपर भी एक साथ दोनो धर्मोका | कहना समझना असंभव ही है । इसलिये एक साथ परस्परविरुद्ध दो धर्मोंको बोलनेकी अपेक्षा - एक साथ दो धर्मों का कहनेवाला कोई | शब्द न होनेसे वस्तुका खरूप कथंचित् अवक्तव्य रहता है। वस्तुका अवक्तव्य खरूप कथंचित ही संभवता है किंतु सर्वथा अवक्तव्य भी नहीं है । यदि सर्वथा अवक्तव्य खरूप होता तो अवक्तव्य शब्दसे कहना भी कठिन होजाता । यह चौथा भंग हुआ । स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति अवक्तव्य तथा स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य ये पांचवें छट्ठे सातवें भंग सुगम | भावार्थ - इन तीनोका स्वरूप जो कुछ कहना था वह ऊपरके कथनसे ही गतार्थ होजाता है और कुछ विशेष कहना नहीं है । न च वाच्यमेकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानाऽनन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तभङ्गीप्रसङ्गादसङ्गतैव सप्तभङ्गीति; विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामेव संभवात् । यथा हि सदसत्त्वाभ्यामेवं सामान्यविशेषाभ्यामपि सप्तभयेव स्यात् । तथा हि । स्यात्सामान्यम् । स्याद्विशेषः । स्यादुभयम् । | स्यादवक्तव्यम् । स्यात्सामान्याऽवक्तव्यम् । स्याद्विशेषावक्तव्यम् । स्यात्सामान्यविशेषाऽवक्तव्यमिति । न चात्र | विधिनिषेधप्रकारौ न स्त इति वाच्यं; सामान्यस्य विधिरूपत्वाद्विशेषस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषेधात्मकत्वात् । अथ वा प्रतिपक्षशब्दत्वाद्यदा सामान्यस्य प्राधान्यं तदा तस्य विधिरूपता विशेषस्य च निषेधरूपता । यदा | विशेषस्य पुरस्कारस्तदा तस्य विधिरूपता इतरस्य च निषेधरूपता । एवं सर्वत्र योज्यम् । अतः सुष्ठुकं अनन्ता अपि सप्तभज्य एव भवेयुरिति । ज़ब एक एक वस्तुमें अनंतो अनंतो धर्म हैं और सभी विधीयमान निषिध्यमान हैं तब यदि अनंतो ही भंग होसकते हैं तो सप्तभंगी ही क्यों कहना चाहिये ? यह शंका अनुचित है । क्योंकि, चाहें - कितने ही धर्मोंको अस्तिनास्तिरूप कहा जाय परंतु

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