Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 351
________________ होनेसे आपके वचनोको सिंहनाद ही कहते है । यहांपर आपके युक्तिपूर्ण वचनोंका प्रत्युत्तर न देसकना ही कुवादियोंका भयभीत होजाना है। अर्थात् आपका कहा हुआ एक एक भी हेतु दूसरे वादियोंके मतका खण्डन करनेवाला है। ॥ अत्र प्रमाणानीति बहुवचनमेवंजातीयानां प्रमाणानां भगवच्छासने आनन्त्यज्ञापनार्थम्, एकैकस्य सूत्रस्य । सर्वोदधिसलिलसर्वसरिद्वालुकाऽनन्तगुणार्थत्वात् तेषां च सर्वेषामपि सर्वविन्मूलतया प्रमाणत्वात् । अथ वा इत्यादिबहुवचनान्ता गणस्य संसूचका भवन्तीति न्यायादिति शब्देन प्रमाणवाहुल्यसूचनात्पूर्वार्द्ध एकस्मिन्नपि । प्रमाणे उपन्यस्ते उचितमेव बहुवचनम् । इति काव्यार्थः। __यहांपर जो " प्रमाणानि" ऐसा बहुवचन कहा है उससे यह समझना चाहिये कि आपके शासनमें एक एक विषयके खण्डन करनेकेलिये अनंतो प्रमाण है । क्योंकि; संपूर्ण समुद्रोकी जलबिंदुओसे तथा संपूर्ण नदियोंकी वालुकासे भी अनंत गुणा|| एक एक द्वादशांग सूत्रका अर्थ है । और वे सभी सूत्र तथा उनके अर्थ सर्वज्ञभाषित होनेसे प्रमाण है । अथवा यदि किसी चीजके नामके आगे इति आदि या बहुवचनान्त शब्द बोले जाते है तो उनसे' इत्यादि ' ऐसे समूह अर्थकी सूचना समझी जाती है ऐसा व्यवहार है। इसलिये चाहें श्लोकके ऊपरी भागमें "अतोन्यथा सत्त्वमसूपपादम् ” यह एक ही प्रमाण लिखा है | परंतु इति शब्दसे और भी बहुतसे प्रमाणोंका संग्रह होसकता है इसलिये “ प्रमाणानि" ऐसा बहुवचन ही कहना उचित है। इस प्रकार इस श्लोकका अर्थ पूर्ण हुआ। | अनन्तरमनन्तधात्मकत्वं वस्तुनि साध्यं मुकुलितमुक्तम् । तदेव सप्तभङ्गीप्ररूपणद्वारेण प्रपञ्चयन् भगवतो निरतिशयं वचनातिशयं च स्तुवन्नाह । | जो अनंतरके पहिले श्लोकमें वस्तु अनंत धर्मात्मक है ऐसा संक्षेपसे प्रतिपादन किया था उसीको अब सप्तभंगोंकी प्ररूपणाद्वारा विस्तारते हुए तथा भगवान्के वचनोका अनुपम अतिशय वर्णन करते हुए आचार्य कहते है। अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम् । आदेशभेदोदितसप्तभङ्गमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥ २३ ॥

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