Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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पाद्वादम-
॥१०॥
प्रपंचकी सत्यताको ही निश्चय कराता है । कारण कि; 'यह घट है' इस आकारका जो प्रत्यक्ष है वह घट आदि प्रतिनियत राजै.शा. जा(खास मुकर्रर किये हुए) पदार्थोके ज्ञानरूप ही उत्पन्न होता है और एक दूसरेसे भिन्न हुए ऐसे पदार्थ ही प्रपंच इस शब्दसे
वाच्य ( कहे जाने योग्य ) है। भावार्थ-प्रत्येक भिन्न २ पदार्थको तुमने प्रपंच माना है; और प्रत्यक्ष भी घट आदि पदार्थको | दूसरे पदार्थों से भिन्न करके ही जनाता है।
अथ प्रत्यक्षस्य विधायकत्वात्कथं प्रतिषेधे सामर्थ्यम् । प्रत्यक्षं हि-इदमिति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति । नान्यत्स्वरूपं ।। प्रतिषेधति । " आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निपेढ़ विपश्चितः । नैकत्व आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रवाध्यते ॥१॥” इति ली वचनात् । इति चेत्-न । अन्यरूपनिषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदस्याप्यसंपत्तेः । पीतादिव्यवच्छिन्नं हि नीलं नीलमिति गृहीतं भवति । नान्यथा। केवलवस्तुस्वरूपप्रतिपत्तरेवान्यप्रतिषेधप्रतिपत्तिरूपत्वात् । मुण्डभूतलग्रहणे ! घटाभावग्रहणवत् । तस्माद्यथा प्रत्यक्षं विधायक प्रतिपन्नं, तथा निषेधकमपि प्रतिपत्तव्यम् ।
यदि वादी कहें कि,- “विद्वानोंने प्रत्यक्षको विधायक (पदार्थके खरूपको ग्रहण करनेवाला) कहा है और निषेधक ( पदार्थके खरूपको निराकरण करनेवाला ) नही कहा है। इस कारण उस प्रत्यक्षसे एकत्व आगमका अर्थात् केवल एक ब्रह्मको ही माननेवाले वेदान्तियोंके सिद्धान्तका बाध (खंडन) नही होता है ॥१॥" इस वचनके अनुसार प्रत्यक्ष विधायक अर्थात् वस्तुके || खरूपको ग्रहण करनेवाला है, इस कारण वस्तुके खरूपका प्रतिषेध करनेमें उस प्रत्यक्षका सामर्थ्य कैसे हो सकता है । सो यह उनका कहना ठीक नहीं है । क्योंकि पटादि दूसरे पदार्थोंका निषेध किये विना उस एक घटादि पदार्थके स्वरूपका ज्ञान ही नही हो सकता है । क्योंकि, पीत ( पीले) आदि वर्णो से भिन्न हुआ ऐसा जो नीलवर्ण है उसीका ' यह नील है ' इस प्रकार || ग्रहण होता है । अन्य प्रकारसे नही । कारण कि; जैसे केवल भूतलका ग्रहण होनेसे उस भूतल ( जमीन ) में घटके अभावका ग्रहण हो जाता है उसी प्रकार केवल पदार्थके खरूपका जो ग्रहण है वही अन्य पदार्थों के निषेधको ग्रहण करने रूप है । इस |
॥१०१॥ लाकारण जैसे उन वादियोंने प्रत्यक्षको विधायक माना है; उसी प्रकार उन्हें प्रत्यक्षको निषेधक भी स्वीकार करना चाहिये। ।
अपि च विधायकमेव प्रत्यक्षमित्यङ्गीकृते यथा प्रत्यक्षेण विद्या विधीयते, तथा किं नाविद्यापीति । तथा च