Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादमं. ॥१२३॥
उत्पत्ति जड वस्तुसे होना संभव नही है । आकाशादिकका शब्दादिक पांच तन्मात्राओंसे उत्पन्न होना तो सर्वथा ही प्रतीतिबाधित है । इसलिये इसका अधिक विचार क्या लिखै ?
अपि च सर्ववादिभिस्तावदविगानेन गगनस्य नित्यत्वमङ्गीक्रियते । अयं च शब्दतन्मात्रात्तस्याप्याविर्भावमु द्भावयन्नित्यैकान्तवादिनां च धुरि आसनं न्यासयन्नसंगतप्रलापीव प्रतिभाति । न च परिणामिकारणं स्वकार्यस्य गुण भवितुमर्हतीति शब्दगुणमाकाशमित्यादि वाङ्मात्रम् । वागादीनां चेन्द्रियत्वमेव न युज्यते इतरासाध्यकार्य कारित्वाभावात् ; परप्रतिपादनग्रहणविहरणमलोत्सर्गादिकार्याणामितरावयवैरपि साध्यत्वोपलब्धेः । तथापि तत्कल्पने इन्द्रियसंख्या न व्यवतिष्ठते अन्याङ्गोपाङ्गादीनामपीन्द्रियत्वप्रसङ्गात् ।
और भी दूसरा दोष यह है कि सर्व वादियोंने आकाशको निर्विवाद नित्य माना है और यह (सांख्यमती) शब्दतन्मात्रा से उसकी उत्पत्ति भी मानता हुआ सर्वथा नित्यमाननेवालो में सबके आगे अपना आसन जमाता है। ऐसा भी सांख्य क्या असंगत भाषी नही है और भी तीसरा दोष यह है कि जो किसी वस्तुका पर्याय पलटाने में कारण होता है वही खयं उस पलटे हुए पर्यायका गुण नही हो सकता है। इसलिये आकाशको शब्दसे ही उत्पन्न कहकर शब्दगुणवाला मानना तथा ऐसे ही और भी कथन कहने मात्र ही है । वचन, हाथ, पैर, गुदा तथा लिंगको ( पुरुषचिह्नको ) इन्द्रिय मानना भी सर्वथा अयोग्य है । क्योंकि, इंद्रिय वही होसकता है जिसके द्वारा ऐसा कार्य हो जो अन्यसे न होसकै । वचनसे दूसरों को समझाना, हाथसे किसी वस्तुको उठाना, पैरोंसे चलना, गुदाके द्वारा विष्टाका त्यागना तथा पुरुषचिह्नसे मूंतना इत्यादि कार्य जो वचनादि इद्रियोंसे किये जाते है वे तो अन्य प्रकार भी किये जा सकते है । यदि तो भी इनको इंद्रिय माना जाय तो इद्रिय ग्यारह ही है ऐसा नियम ही न होसकै । क्योंकि, ऐसे और भी बहुतसे शरीरके अवयव है जो हाथ पैर आदिके समान इंद्रिय मानेजासकते है ।
यच्चोक्तं “नानाश्रयायाः प्रकृतेरेव वन्धमोक्षौ संसारश्च न पुरुषस्य " इति तदप्यसारम् अनादिद्भवपरम्परानुवद्धया प्रकृत्या सह यः पुरुषस्य विवेको ग्रहणलक्षणोऽविष्वग्भावः स एव चेन्न बन्धस्तदा को नामान्यो वन्धः स्यात् ? प्रकृतिः सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तमिति च प्रतिपद्यमानेनायुष्मता संज्ञान्तरेण कर्मैव प्रतिपन्नं तस्यैवस्वरूपत्वादचेतनत्वाच्च ।
रा.जै. शा
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