Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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पदार्थ की सिद्धि या तो भेदरूपसे ही होसकती और या अभेद मानकर ही । वस्तुकी स्थिति करने का भेदाभेद छोड़कर अन्य कोई मार्ग नहीं है । जो आर्हत मतको नहीं मानते है वे या तो वस्तुको भेदरूपसे ही साधसकते है या अभेदरूपसे ही । जैसे बांझके सुत होना संभव नहीं है तैसे उनके लिये भेदाभेद के अतिरिक्त वस्तु साधनेका कोई भी मार्ग संभव नहीं है । इस प्रकार तीनो पक्षोके माननेमें दोषारोपण होसकता है। एक भी पक्ष ऐसा नहीं है जिसके माननेसे क्षणसंतति तथा वासना सिद्ध होसकै इसलिये हताश | होकर कथंचित् भेदाभेदपक्ष ही मानना पड़ता है । " जो दोष प्रत्येक जुदे जुदे पक्ष माननसे आता है वह दोष उन दोनोंके | समुदायरूप एक पक्ष माननेसे भी आवेगा " इस वचनके अनुसार जो दोष एक एक भेद अथवा अभेद पक्षके माननेसे आते है वे कथंचित् भेदाभेद माननेमें भी आसकते हैं ऐसा कहना भी असत्य है । क्योंकि; जैसे कुक्कुटसर्प या नरसिंह पर्यायमें न तो | केवल कुक्कुट या नरकासा ही रूप रहता है और न सर्प या सिंहकासा ही किंतु दोनोंसे विलक्षण ही होता है उसी प्रकार कथंचित् भेदाभेदरूप अनेकांतवादका खरूप एक एक पक्षोंकी अपेक्षा कुछ निराला ही है ।
नन्वार्हतानां वासनाक्षणपरम्परयोरङ्गीकार एव नास्ति । तत्कथं तदाश्रयभेदाभेदचिन्ता चरितार्था इति चेन्नैवम् । | स्याद्वादवादिनामपि हि प्रतिक्षणं नवनवपर्यायपरम्परोत्पत्तिरभिमतैव । तथा च क्षणिकत्वम् । अतीताऽनागतवर्तमानपर्यायपरम्परानुसन्धायकं चान्वयिद्रव्यम् । तच्च वासनेति संज्ञान्तरभाक्त्वेऽप्यभिमतमेव । न खलु नामभे| दाद्वादः कोऽपि कोविदानाम् । सा च प्रतिक्षणोत्पदिष्णुपर्यायपरम्पराऽन्वयिद्रव्यात्कथंचिद्भिन्ना कथंचिदभिन्ना च । तथा तदपि तस्याः स्याद्भिन्नं स्यादभिन्नम् । इति पृथक्प्रत्ययव्यपदेशविषयत्वाद्भेदो द्रव्यस्यैव च तथा तथा | परिणमनादभेदः । एतच्च सकलादेशविकला देशव्याख्याने पुरस्तात्प्रपञ्चयिष्यामः ।
जैनोंने जब वासना तथा क्षणसंतति ये दोनो पदार्थ ही नही माने है तो बे परस्पर भिन्न है अथवा अभिन्न ऐसा विचार करने की उनको क्या आवश्यकता है' यह शंका करना उचित नहीं है । क्योंकि, स्याद्वादियो ने भी प्रतिक्षण नये नये पर्यायोंकी उत्पत्ति | मानी है इसलिये तो क्षणिकता अथवा क्षणसंतति मानना सिद्ध होता है और जो एक द्रव्यके अतीत अनागत वर्तमान काल संबंधी | संपूर्ण पर्यायोंको एकरूप रखनेवाला है उसको अन्वयिद्रव्य कहा है तथा उसीको वासना नामसे भी कहसकते है । नाममात्रका | भेद होनेसे विद्वानोमें विवाद कभी नहीं होता । वह प्रत्येक क्षणोंमें उपजनेवाली पर्यायोंकी शृंखला अन्वयिद्रव्यसे