Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 323
________________ ङ्गीकरणे च प्राश्च एव दोषाः । न च भेदेन ते युज्येते । सा हि भिन्ना वासना क्षणिका वा स्यादक्षणिका वा ? क्षणिका चेत्तर्हि क्षणेभ्यस्तस्याः पृथक्कल्पनं व्यर्थम् । अक्षणिका चेदन्वयिपदार्थाभ्युपगमेनागमबाधः । तथा च पदार्थाअन्तराणां क्षणिकत्वकल्पनाप्रयासो व्यसनमात्रम् । व्याख्यार्थ - प्रथम ज्ञानक्षणसे आगे के दूसरे ज्ञानक्षणों में उत्पन्न होती हुई शक्तिको वासना कहते हैं । टूटी हुई मोतियोंकी मालामेंसे | विखिरे हुए मोतियोंके समान परस्पर जुदे जुदे ज्ञानक्षणों का एक दूसरेमें मिले हुएकासा ज्ञान करानेवाली वासना बौद्धमतावलंबियोने मानी है । यह वासना संपूर्ण ज्ञानक्षणों में इस प्रकार प्रविष्ट रहती है जिस प्रकार मोतियोंकी माला में डोरा। इसीका दूसरा नाम संतान है। और दीपककी लौके समान सदा नये नये उत्पन्न होते हुए पूर्वोत्तर पर्यायोंमें एकसी जो ज्ञानक्षणोकी अर्थात् प्रत्येक समयवर्ती ॐ ज्ञानके पर्यायोंकी श्रेणी है उसीको बौद्धसिद्धांतवाले क्षणसंतति कहते हैं । ये दोनो ही क्षणसंतति तथा वासना न तो अभेददृष्टि | माननेसे ही संभव होसकती है और न भेदपक्ष अर्थात् अनेकता माननेसे और न भेदाभेद दोनो ही न माननेसे । जब अभेदपक्ष मानते हैं तब तो संपूर्ण संसार ही एकरूप है इस लिये यह वासना है और यह क्षणसंतति है ऐसा भेदव्यवहार नही बनसकता । जब संपूर्ण विश्वको अभेदरूप मान चुके तब या तो वासना ही एक चीज मानलीजाय या क्षणसंतति ही । अभेदरूप संपूर्ण | विश्वको मानते हुए यह नहीं कहसकते हैं कि वासना तथा क्षणसंतति दोनो ही भिन्न भिन्न वस्तु हैं । जो वस्तु जिससे अभिन्न है उसकी प्रतीति उससे भिन्न होकर कभी नही होसकती है । जैसे घड़ा और घड़ेका आकार ये दोनो अभिन्न है; घड़ेका स्वरूप घड़ेके अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु नही है इसलिये घड़े के खरूपका घड़ेके अतिरिक्त कही अन्यत्र भान नहीं होता । इस प्रकार जब दोनो जुदे सिद्ध नहीं होते तब यदि केवल वासना ही खीकार करे तो वासनामें एक अनुगामीपना धर्म रहता है सो जब वासित करने योग्य कोई भिन्न पदार्थ ही नहीं है तो वासनाका अन्वय कहांपर रहैगा और अपनी वासनासे किसको वासित करैगा ? इस | प्रकार केवल वासना माननेपर तो वासनाका स्वरूप भी नहीं बनता है और यदि केवल क्षणसंतति ही मानीजाय तो क्षणसंततिमें आनेवाले दोष पहिले ही कह चुके हैं। और दोनोंमें भेद माननेपर भी वासना तथा क्षणसंतति सिद्ध नही होसकती हैं। क्योंकि, वासनाको | भिन्न मानकर भी क्या क्षणसंतति की तरह क्षणिक माना है अथवा नित्य ? यदि वासना भी क्षणिक है तो क्षणसंततिके अतिरिक्त वासनाकी कल्पना करना ही व्यर्थ है । अर्थात् यदि चिरस्थायी सब क्षणोंमें रहनेवाली एक वासना नही मानीजाय तो पहिले क्षणवर्ती

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