Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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रा जै.शा.
स्थाद्वादम. ॥१६॥
( वासनासे) कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है। इसी प्रकार अन्वयिद्रव्य भी पर्यायपरंपरासे (क्षणपरंपरासे ) कथंचित् | मिन्न कथंचित् अभिन्न है। जो प्रत्येक पर्यायका ज्ञान जुदा जुदा होता है वह निर्मूल नहीं है इसलिये तो प्रत्येक पर्याय भिन्न भिन्न है परंतु वे संपूर्ण पर्याय होते एक ही द्रव्यके है इसलिये पर्याय तथा अन्वयि द्रव्य एक दूसरेसे अभिन्न है । इस कथंचित् / भेदाभेदका खुलासा आगे चलकर सकलादेश विकलादेशका व्याख्यान करते समय करेंगे। । अपि च वौद्धमते वासनापि तावन्न घटते इति निर्विषया तत्र भेदादिविकल्पचिन्ता। तल्लक्षणं हि पूर्वक्षणेनोत्तरक्षणस्य वास्यता। न चाऽस्थिराणां भिन्नकालतयान्योन्याऽसंवद्धानां च तेषां वास्यवासकभावो युज्यते; स्थिरस्य
संवद्धस्य च वस्त्रादेमंगमदादिना वास्यत्वं दृष्टमिति । अथ पूर्वचित्तसहजाच्चेतनाविशेषात्पूर्वशक्तिविशिष्टं चित्तमु. उत्पद्यते । सोऽस्य शक्तिविशिष्टचित्तोत्पादो वासना । तथा हि । पूर्वचित्तं रूपादिविपयं प्रवृत्तिविज्ञानं यत्तत्पवि
धम् । पञ्च रूपादिविज्ञानान्यऽविकल्पकानि । पष्ठं च विकल्पविज्ञानम् । तेन सह जातः समानकालश्चेतनाविशेपोऽहङ्कारास्पदमालयविज्ञानम्। तस्मात्पूर्वशक्तिविशिष्टचित्तोत्पादो वासनेति । तदपि न; अस्थिरत्वाद्वासकेनाsसम्बन्धाच्च । यश्चासौ चेतनाविशेषः पूर्वचित्तसहभावी स न वर्तमाने चेतस्युपकारं करोति । वर्तमानस्याऽशक्याऽपनेयोपनेयत्वेनाऽविकार्यत्वात् । तद्धि यथाभूतं जायते तथाभूतं विनश्यति इति । नाप्यनागते उपकारं करोति; तेन सहासंबद्धत्वात् । असंवद्धं च न भावयतीत्युक्तम् । तस्मात् सौगतमते वासनापिन घटते । अत्र च स्तुतिकारेणाऽभ्युपेत्यापि तामन्वयिद्रव्यव्यवस्थापनाय भेदाभेदादिचर्चा विवरितेति भावनीयम् ।
और भी एक दोष यह है कि बौद्धमतमें वासना भी नहीं सिद्ध होती है इसलिये जब क्षणसंततिके अतिरिक्त कोई पदार्थ ल ही नहीं है तो भेदाभेदका झगड़ा बिना आधार करना व्यर्थ है । पूर्व क्षणके धर्मोका उत्तर क्षणोंमें आजाना ही वासना मानी गई ॐ है। परंतु जो क्षण स्वयं अस्थिर हैं तथा जुदे जुदे समयोमें उपजनेसे एक दूसरेसे मिल नहीं सकते है उन क्षणोंमेंसे यह क्षण
तो वासना पैदा करनेवाला है तथा इस क्षणमें वासना पैदा होती है ऐसा कथन कैसे बनसकता है ? जो वस्त्रादि स्वयं स्थिर हों । तथा जिनका कस्तूरी आदिकके साथ संबंध भी होसकता हो उन्हीमें कस्तूरी आदिकोकी वासना होती हुई दीखती है । यहापर
बौद्ध कहता है कि पूर्वचित्तक्षणके साथ साथ उत्पन्न हुए एक प्रकारके चैतन्यके द्वारा पूर्वकीसी शक्तिसहित दूसरा चित्तक्षण
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