Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
View full book text
________________
स्थाद्वादम.
॥१६३॥
५ नास्तिकको ऐसे प्रसंगपर सत्यवादियों के समुदायमें घुसकर प्रमाणके विषयका विचार करना तो दूर ही रहा किंतु वचन कहनेका राजै.शा. भी अधिकार नहीं है । अर्थात् ऐसे प्रसंगपर इसको चुप रहना ही उचित है।
वचनं हि परप्रत्यायनाय प्रतिपाद्यते । परेण चाप्रतिपित्सितमर्थ प्रतिपादयन्नमा सतामवधेयवचनो न भवत्युन्मत्तवत् । ननु कथमिव तूष्णीकतैवास्य श्रेयसी? यावता चेष्टाविशेपादिना प्रतिपाद्यस्याऽभिप्रायमनुमाय सुकरमेवानेन वचनोच्चारणमित्याशङ्कयाह "क चेष्टा क दृष्टमात्रं च" इति । केति बृहदन्तरे।चेष्टाइङ्गितं पराभिप्रायरूपस्यानुमेयस्य लिङ्गम् । व च दृष्टमात्रम् । दर्शनं दृष्ट, भावे ते। दृष्टमेव दृष्टमानं प्रत्यक्षमात्रम् । तस्य लिङ्गनिरपे-) क्षप्रवृत्तित्वात् । अत एव दूरमन्तरमेतयोः। न हि प्रत्यक्षेणातीन्द्रियाः परचेतोवृत्तयः परिज्ञातुं शक्यास्तस्यैन्द्रियकत्वात् । मुखप्रसादादिचेष्टया तु लिगभूतया पराभिप्रायस्य निश्चयेऽनुमानप्रमाणमनिच्छतोऽपि तस्य चलादापतितम् । तथा हि । मदचनश्रवणाऽभिप्रायवानयं पुरुपस्ताहग्मुखप्रसादादिचेष्टाऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति । अतश्च हहा प्रमादः। हहा इति खेदे । अहो तस्य प्रमादः प्रमत्तता, यदनुभूयमानमप्यनुमानं प्रत्यक्षमात्रागीकारेणापन्हुते।।
दूसरोंको विश्वास करानेकेलिये ही वचन कहाजाता है। जिस अभिप्रायको दूसरे जानना चाहते है उसको न समझकर अन्य अर्थको जब यह नास्तिक सिद्ध करने लगेगा तब उन्मत्तके वचनके समान इसके वचनका निरादर ही होगा; न कि प्रशसा । अर्थात् इसलिये चुप रहना ही अच्छा है। यहांपर नास्तिक कहता है कि मुझे चुप क्यों रहना चाहिये ? क्योंकि प्रतिपादन करनेयोग्य वादीके अभिप्रायको चेष्टादिके द्वारा समझकर सहज ही उसके विषयमें युक्तिसंगत बोलसकता हूं। नास्तिककी यह शंका सुनकर आचार्य उत्तर देते है कि; कहां तो चेष्टा देखकर अभिप्राय समझलेना और कहां केवल प्रत्यक्षसे देखना । (केवल प्रत्यक्षसे देखलेना "दृष्टमात्र" शब्दका अर्थ है । दृष्ट नाम देखने का है। यहांपर 'दृष्ट' शब्दमें भाववाचक प्रत्यय किया गया है।) अर्थात् सामान्य रीतिसे इंद्रियोंद्वारा देखलेना और चेष्टा देखकर अभिप्राय समझलेना इन दोनोमें बड़ा अंतर है। चेष्टा तो परके। आंतरंग अभिप्रायका अनुमान कराने हेतु होती है और जो केवल किसी प्रत्यक्ष वस्तुका देखना है वह हेतुके विना सहज ही
॥१६॥ | होसकता है इसलिये इन दोनो ज्ञानोमें बडा भारी अंतर है। यहांपर 'क' शब्द रखनेसे दोनो ज्ञानोमें बडा भारी अतर, दिखाया गया है । दूसरे वादियोके मानसिक विकारोका जो कि अन्य जनोकी इंद्रियोंके गोचर नहीं है जान लेना प्रत्यक्ष ज्ञानसे नहीं