Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
View full book text
________________
है । प्रकृति, उपादान, काल तथा भोग इन नामोंवाली अथवा अंभः, सलिल, ओघ तथा वृष्टि ये दूसरे नाम है जिनके ऐसी चार आध्यात्मिक तुष्टि है। शब्दस्पर्शादिक विषयोंसे उदासीनरूप तथा अप्राप्त वस्तुका उपार्जन, विद्यमान वस्तुकी रक्षा, विद्यमानका ही नाश, भोग, तथा हिंसारूप दोषोंसे उत्पन्न हुई ऐसी पांच बाह्य तुष्टि है। इनके नाम पार, सुपार, पारापार, अनुत्तमांभ तथा उत्तमांभ है। इस प्रकार सर्व तुष्टि नौ है। दुःखका नाश करनेवाली तीन तो मुख्य सिद्धि है । प्रमोद, मुदितमोद तथा मान ये इनके तीन नाम है । और अध्ययन, शब्द, ऊह ( तर्क ), सच्चे मित्रोंकी प्राप्ति तथा दान ये पांच अप्रधान सिद्धि है। तार, सुतार, तारतार, रम्यक तथा सदामुदित ये इन पाचोंके नाम है। इस प्रकार सर्व मिलकर आठ सिद्धि है। धृति, श्रद्धा, सुख, जाननेकी इच्छा तथा ज्ञानका होना ये पांच प्रत्येक कर्म करने में मूलकारण होते है । इत्यादिक तथा और भी संवर प्रतिसंवरादिक | तत्त्वकौमुदीनामक ग्रन्थके गौड़पादभाष्यादिकोंमें दिखाई हुई सांख्यमतीकी कल्पनाओंमें परस्परका विरोध विचारलेना चाहिये ।। | इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । | इदानीं ये प्रमाणादेकान्तेनाभिन्नं प्रमाणफलमाहुर्ये च बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण ज्ञानाद्वैतमेवास्तीति ब्रुवते तन्मतस्य | विचार्यमाणत्वे विशरारुतामाहुः। ___ अब यह दिखाते है कि जो प्रमाणका फल प्रमाणसे सर्वथा अभिन्न अर्थात् एकरूप ही मानते है और जो बाह्य पदार्थोंका निषेध | कर सर्व ज्ञानरूप ही है ऐसा ज्ञानाद्वैत ही मानते है उनके मत विचारनेपर विशीर्ण होजाते है अर्थात् ठहरते नहीं है।
न तुल्यकालः फलहेतुभावो हेतौ विलीने न फलस्य भावः ।
न संविदद्वैतपथेर्थसंविद्विलूनशीर्ण सुगतेन्द्रजालम् ॥ १६॥ K मूलार्थ-उपादान कारण तथा उसका कार्य ये दोनो एक समयमें नही रहसकते है और उपादान कारणका सर्वथा नाश हो
जानेपर भी कार्यकी उत्पत्ति नही होसकती है। यदि केवल ज्ञानवरूप ही जगत् माना जाय तो बाह्य अनेक पदार्थों का ज्ञान नही होसकैगा । इस प्रकार विचारनेपर बुद्धका फेलाया हुआ इंद्रजाल फटजाता है।
व्याख्या-बौद्धाः किल प्रमाणात्तत्फलमेकान्तेनाऽभिन्नं मन्यन्ते । तथा च तत्सिद्धान्तः “उभयत्र तदेव ज्ञ