Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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कठिन है। अर्थात् यह अमुक है अथवा अमुक नहीं है ऐसा निश्चय उसीसे होसकता है जिसका कुछ आकार विद्यमान हो। और यदि यह किसी आकार सहित है तो भी वह ज्ञानका आकार उस ज्ञानसे कोई भिन्न वस्तु है अथवा अभिन्न ? यदि अभिन्न है तो वह ज्ञान ही है इसलिये ज्ञानके अतिरिक्त कोई भिन्नखरूप आकार न होनेसे ऊपर कहा हुआ निराकार पक्षका दोष यहां भी आसकता है। और यदि वह आकार ज्ञानके अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु है तो वह आकार चैतन्यखरूप है अथवा जडखरूप यदि चैतन्यखरूप है तो जिस प्रकार ज्ञान जिस पदार्थको जानता है उसी प्रकार यह ज्ञानका आकार भी | उस पदार्थको जानता होगा ऐसा मानना चाहिये । और जब ज्ञानका आकार भी पदार्थको जानता है ऐसा सिद्ध हुआ तब वह
आकार भी खयं किसी दूसरे आकार सहित है अथवा निराकार है ? यदि निराकार है तो पदार्थों का निश्चय होना कठिन है। और यदि साकार है तो वह आकार चैतन्यस्वरूप है अथवा जड़खरूप यदि चैतन्यस्वरूप है तो जिस प्रकार ज्ञान तथा ज्ञानका प्रथम आकार पदार्थको जानते है उसी प्रकार वह आकारका आकार भी उस पदार्थको जानने लगेगा । इत्यादि पूर्वोक्त विकल्प ही उत्तरोत्तर फिर संभव होनेसे अनवस्था दोष आवैगा । उत्तरोत्तर विचार करते करते भी अंत न मिलनेको अनवस्था कहते हैं। और यदि वह ||आकार जड़स्वरूप है तो क्या वह आकार स्वयं अज्ञात रहकर ही ज्ञानद्वारा पदार्थके जाननेमें सहायक होता है होनेपर / यदि स्वयं अज्ञात रहकर ही पदार्थके जाननेमें सहायक है तो जो पदार्थ किसी एक प्राणीको जान पड़ता है उसका ज्ञान दूसरेको भी होना चाहिये । क्योंकि; ज्ञानका आकार खयं अज्ञातपनेकी अपेक्षा उस दूसरे प्राणीमें भी विद्यमान है। और यदि ज्ञात होकर पदार्थके ज्ञान होनेमें सहायक मानाजाय तो उस जड़खरूप आकारका ज्ञान किसी निराकार ज्ञानद्वारा हुआ है अथवा साकार ज्ञानद्वारा ? यदि किसी निराकार ज्ञानसे उस आकारका ज्ञान मानाजाय तो उस आकारका निराकार ज्ञानद्वारा निश्चय होना दुर्लभ है। इत्यादि प्रकारसे वारंवार पूर्वोक्त विकल्पोको ही लौटाते लौटाते कहींपर स्थिति नहीं रहसकती है इसलिये यहां भी अनवस्था दोष आता है। | इत्थं प्रमाणाऽभावे तत्फलरूपा प्रमितिः कुतस्तनी ? इति सर्वशून्यतैव परं तत्त्वमिति । तथा च पठन्ति “यथा ) यथा विचार्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा । यदेतत्स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्" । इति पूर्वपक्षः। विस्तरतस्तु प्रमाणखण्डनं तत्त्वोपप्लवसिंहादवलोकनीयम् ।