Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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पदार्थ कोई भी नहीं है; केवल विज्ञान ही बुद्धिको अनेकाकार करता रहता | अलंकार ग्रन्थके कर्ता बौद्धाचार्य धर्मकीर्तिने भी कहा है कि " जब नीलादिक आकार प्रतिभाससे ही जान पड़ता है तब उसको बाह्य पदार्थ क्यों कहना चाहिये ? और जब वह प्रतिभासित नही होता है तब उसको बाह्य पदार्थ क्यों कहना चाहिये । " अर्थात् जब प्रतिभासित होता है तब तो वह प्रतिभासरूप है इसलिये प्रतिभासको अंतरंग ज्ञानमय ही मानना चाहिये। तब तो बाह्य पदार्थ के होने में कोई प्रमाण ही नही है । और जब कुछ प्रतिभासित ही नहीं होता है तब कुछ है या नही इसीमें शंका है तो वह बाह्य पदार्थ है ऐसा कैसे कह सकते 2 बाह्य पदार्थ ही यदि नहीं है तो यह घड़ा हैं, यह पड़ा है इत्यादि ज्ञान क्यों होता है ऐसी शंका ठीक नहीं । क्योंकिः जैसे विना किसी बाह्य विषयके निरालंबन ही आकाशमें केश आदिकोका ज्ञान हो जाता है अथवा जैसे स्वममें जो ज्ञान होता है वह वस्तुके आलंबन विना ही होता है तैसे ही घटपटादिकका सर्वसामान्य ज्ञान भी बाह्य वस्तुके आलंबन विना अनादिकालसे साथ लगी हुई झूठी वासनाके कारण ही प्रवर्तता है । इसीलिये कहा है कि " जो बुद्धिमें प्रतिभासता है वह कोई बुद्धिसे अतिरिक्त पदार्थ नही है और न बुद्धिके अतिरिक्त अनुभव ही कोई वस्तु है । विषय विषयी भिन्न भिन्न न होनेसे खयं बुद्धि ही नानारूपसे प्रकाशित होती रहती है ॥ बाह्य कोई भी पदार्थ नही है जैसा कि मूर्ख लोगोने कल्पित कर रक्खा है । अनादिकालसे लगी हुई मिथ्या वासनासे वासित हुआ चित्त ही नानाप्रकारके पदार्थोंरूप परिणमता है । "
तदेतत्सर्वमवद्यम् । ज्ञानमिति हि क्रियाशब्दस्ततो ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं ज्ञप्तिर्वा ज्ञानमिति । अस्य च कर्मणा भाव्यं; निर्विषयाया ज्ञप्तेरघटनात् । न चाकाशकेशादौ निर्विषयमपि दृष्टं ज्ञानमिति वाच्यं तस्याप्येकान्तेन निर्विषयत्वाऽभावात् । न हि सर्वथाऽगृहीतसत्यकेशज्ञानस्य तत्प्रतीतिः । स्वप्नज्ञानमप्यनुभूतदृष्टाद्यर्थविपयत्वान्न निरालम्वनम् । तथा च महाभाष्यकारः " अणुयदिट्ठचिंतिय सुयपयइवियारदेवयाणूवा । सुमिणस्स निमित्ताई पुकृष्णं पावं च णाऽभावो ( संस्कृतच्छाया - अनुभूतदृष्ट चिन्तितश्रुतप्रकृतिविकारदैविकाऽनूपाः । स्वप्नस्य निमित्तानि पुण्यं पापं च नाऽभावः ) " ॥ यश्च ज्ञानविषयः स च वाह्योऽर्थः । भ्रान्तिरियमिति चेच्चिरं जीव । भ्रान्तिर्हि | मुख्येऽर्थे क्वचिद् दृष्टे सति करणाऽपाटवादिना अन्यत्र विपर्यस्तग्रहणे प्रसिद्धा । यथा शुक्तौ रजतभ्रान्तिः । अर्थ| क्रियासमर्थेऽपि वस्तुनि यदि भ्रान्तिरुच्यते तर्हि प्रलीना भ्रान्ताऽभ्रान्तव्यवस्था । तथा च सत्यमेतद्वचः “आशा| मोदकतृप्ता ये ये चास्वादितमोदकाः । रसवीर्यविपाकादि तुल्यं तेषां प्रसज्यते । १ ।”
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