Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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राजै.शा.
स्थाद्वादमं.
॥१३८॥
यह सव जो बौद्धका कहना है वह झूठ है। कैसे ? जाननेरूप क्रियाका नाम ज्ञान है। जिससे जाना जाय वह ज्ञान है
जाय वह ज्ञान है अथवा जाननामात्र ही ज्ञान है । जिससे जाना जाय अथवा जाननामात्र ऐसा ज्ञानशब्दका अर्थ होनेसे इस ज्ञानका कर्म कोई न कोई अवश्य होना चाहिये । क्योंकि, विना किसी विषयके जानना कैसे हो सकता है ? यदि कहों कि जैसे आकाशमें केशोंका ज्ञान विना किसी विषयके भी होजाना सर्व जनोमे प्रसिद्ध है तैसे ही सर्वत्र भी विना विषयके ज्ञान हो सकता है परंतु यह कहना
ठीक नहीं है। क्योंकि आकाशमें जो केशोंका ज्ञान होता है वह भी सर्वथा निर्विपय नहीं है । जिस मनुप्यने कभी भी सचमुचके के केश देखे नहीं हों उसको आकाशमें भी केशोंकी प्रतीति होना संभव नहीं है। अर्थात्-इस कहनेसे यह सिद्ध होता है कि
जिसने प्रथम सच्चे केश देखे है उसीको आकाशमे भरे हुए अपरिमित सूक्ष्म रजआदिक केशादिरूप दीख सकते है। इसमें विपर्यय से होनेका कारण बहुत अंतरका (फासलेका) पडना है । इस प्रकार आकाशमें जो केशोंका दीखना है वह रज आदिक वस्तुओंमें विपरीत
परिणया ज्ञान है, न कि निर्विषय । इसीप्रकार खम्मका ज्ञान भी जागृत अवस्थामें पहिले अनुभव किये पदार्थोंका ही होता है इसलिये निर्विपय नहीं है । यही महाभाष्यकारने कहा है " पहिले अनुभव किये, देखे, विचार किये तथा सुने हुए पदार्थ तथा वातपित्तादिजनित विकार तथा देवोकर विकारको प्राप्त किया मन तथा जलप्रधानदेश अथवा पापपुण्यके कारण ये सर्व स्खम आनेमें निमित्तकारण है । अर्थात् खममें वही वस्तु दीखती है जो पहिले सुनी हो देखी हो चितवन की हो तथा अनुभव की हो। और वातपित्तादिके विगड़नेपर भी मनमें नाना प्रकारकी चिंता तथा विचार उत्पन्न होनेसे खाम आता है । इत्यादि खप्न होनेके अनेक कारण मिलते है इसलिये स्वप्नकी उत्पत्ति विना कारणके ही मानना मिथ्या है।" और जो ज्ञानके विषय है वे सव बाह्य पदार्थ ही है। यदि ज्ञानमें जो पदार्थका दीखना है वह भ्रमरूप माना जाय तो भी भ्रम माननेवालेको हम चिरकाल जीता रहो ऐसा आशीर्वाद
देते है । क्योंकि भ्रम माननेसे भी बाह्य पदार्थकी सिद्धि होती है। यदि किसीने एक समय किसी पदार्थको यथार्थ देखा हो | और पीछे इंद्रियमें रोगादि उत्पन्न हो जाय अथवा पदार्थ अत्यंत दूर पड़ा हो अथवा उजाला न हो इत्यादि ज्ञानके किसी
कारणकी कमी होनेसे किसी दूसरे पदार्थको पहिले देखा हुआ पदार्थ मान लिया हो तो उस ज्ञानको भ्रम कहते है। जैसे है जिसने पहिले सच्ची चांदी देखी हो वह पीछे किसी कारणवश शीपको चांदी समझने लगे तो उसका वह ज्ञान भ्रमरूप है। परंतु यदि प्रत्येक सच्चे पदार्थके ज्ञानको भी भ्रम मानलिया जाय तो यह ज्ञान सच्चा है और यह झूठा है ऐसा निश्चय ही कैसे
॥१३८॥