Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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द्वादमं.
॥१२४॥
| वान्तर्भावात् । वन्धसिद्धौ च सिद्धस्तस्यैव निर्बाधः संसारः । बन्धमोक्षयोश्चैकाधिकरणत्वाद्य वद्धः मुच्यते इति पुरुषस्यैव मोक्षः, आवालगोपालं तथैव प्रतीतेः ।
प्राकृतिक ( प्रकृतिमें एकत्वबुद्धि होनेसे उत्पन्न होनेवाला ), वैकारिक ( इंद्रिय अहंकारादिक विकारोंसे उत्पन्न होनेवाला ) और दाक्षिण ( शुभकर्मोंसे होनेवाला पुण्यबंध ) ऐसे बंध तीन प्रकार है । जो प्रकृति में आत्माका भ्रम होनेसे प्रकृतिकी ही | आत्मा समझकर उपासना करते है उनके प्राकृतिक बंध होता है । पृथिव्यादि पांच भूत, इंद्रिय, अहंकार तथा बुद्धिरूप विकारोंकी पुरुष समझकर जो उपासना करते है उनके वैकारिक बंध होता है । यज्ञादिक (इष्ट) और दानादिक (आपूर्त ) शुभ कर्म करनेसे दाक्षिण (पुण्य) बंध होता है । सांसारिक इच्छाओंसे जिसका मन मलिन होरहा है और जो आत्मतत्वको नही समझता है ऐसा जीव भी यज्ञदानादिक शुभकर्म करनेसे बंधको प्राप्त होता ही है । ऐसा कहा भी है कि; जो मूढ मनुष्य यज्ञदानादि कर्मोंको ही सबसे श्रेष्ठ समझते है, यज्ञदानादिके अतिरिक्त किसी भी शुभ कर्मकी प्रशंसा नहीं करते है वे इस यज्ञदानादिके पुण्यसे प्रथम तो खर्गमें उत्पन्न होते है परंतु अंतमें फिर भी इसी मनुष्यलोकमें अथवा इससे भी हीन स्थानोंमें आकर जन्म लेते है ।
इस प्रकार जो ऊपर तीन प्रकारका बंध सांख्यमतीने कहा है वह कहनेमात्र ही है । क्योंकि हमने जो मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योगोंको कर्मबंधका कारण कहा है उन्ही में इस तीन प्रकारके बंधका भी किसी प्रकार अंतर्भाव हो जाता है, उनसे भिन्न कुछ भी नही है । इस प्रकार जब जीवका बंध सिद्ध है तो इस कर्मबंधके कारणसे जो संसारमें परिभ्रमण होता है वह भी उस जीवका ही होना चाहिये । और जो बंधता है वही कभी छूटता है । क्योंकि, जो बंधा ही नही है वह छूटै किससे ± बंध तथा मोक्ष (छूटने का स्वामी (आधार) एक ही होता है। इस प्रकार मोक्ष होना भी पुरुषका ही निश्चित है । जो बँधता है वही छूटने योग्य है यह बात इतनी प्रसिद्ध है कि बच्चोसे लेकर सभी जानते है ।
प्रकृतिपुरुषविवेकदर्शनात् प्रवृत्तेरुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति चेन्नः प्रवृत्तिस्वभावायाः | प्रकृते रौदासीन्यायोगात् । अथ पुरुषार्थनिबन्धना तस्याः प्रवृत्तिः विवेकख्यातिश्च पुरुषार्थः । तस्यां जातायां नि. | वर्तते; कृतकार्यत्वात् । रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् पुरुपस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते
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रा.जै.शा.
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