Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादम.
॥१०५॥
येन यदद्वैतं तद्ब्रह्मणो रूपमित्याधुक्तं शोभेत । विशेषनिरपेक्षसामान्यस्य खरविपाणावदप्रतिभासनात् । तदुक्तम् राजै.शा. ell" निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वेन विशेषास्तद्वदेव हि ॥१॥"
| और जो उन्होंने " प्रत्यक्ष विधायक है, निषेधक नहीं है " इत्यादि आगम प्रमाणका कथन किया है; वह भी मनोहर नहीं Kा है। क्योंकि, प्रत्यक्षद्वारा तो अनुवृत्त तथा व्यावृत्त आकारको धारण करनेवाले पदार्थका ज्ञान होता है अर्थात् सामान्य विशेषात्मक |
वस्तु ही प्रत्यक्षसे गृहीत होता है, और इस विषयका खंडन पहले ही कर चुके है । क्योंकि, अनुस्यूत ( दूसरेमें नहीं मिला हुआ) एक, अखंड, सत्तारूप और विशेषकी अपेक्षासे रहित ऐसा सामान्य नहीं प्रतिभासता है, जिससे कि जो अद्वैत है; वह [.G ब्रह्मका रूप है इत्यादि उनका कहा हुआ सिद्धान्त शोभाको प्राप्त होवे। भावार्थ-अनुस्यूत, एक, अखड, सत्तारूप और विशेष निरपेक्ष ऐसे सामान्यका प्रतिभास होवे तो जो अद्वैत है, वह ब्रह्मका रूप है ऐसा कहना ठीक हो सकता है और सामान्य ऐसा है
नही, इसकारण वादियोंका उक्त कथन मिथ्या है । क्योंकि जो विशेषकी अपेक्षासे रहित सामान्य है उसका गधेके सीगके | समान प्रतिभास नहीं होता है, अर्थात् जैसे गधेके सीगका प्रतिभास नही होता है वेसे ही विशेषकी अपेक्षारहित सामान्यका प्रति
भास भी नही होता है । सो ही कहा है कि,-" विशेपकी अपेक्षारहित जो सामान्य है; वह गधेके सीगके समान असत्ररूप है
और सामान्यकी अपेक्षा न रखनेवाले जो विशेष है, वे भी गर्दभके सीगके समान असत् रूप ही है ।१।" इसकारण सामान्य विशेषात्मक जो पदार्थ हैवही प्रमाणका विषय है । यह हमारा सिद्धान्त सिद्ध होगया और इसके सिद्ध होनेपर उन वादियोंके | माने हुए एक परमब्रह्मके प्रमाणका विषयपना कहासे हो सकता है अर्थात् एक परमब्रह्म प्रमाणका विषय नहीं हो सकता है।
ततः सिद्धे सामान्यविशेषात्मन्यर्थे प्रमाणविषये कुत एवैकस्य परमब्रह्मणः प्रमाणविपयत्वम् । यच्च प्रमेयत्वादित्यनुमानमुक्तम् । तदप्यतेनैवापास्तं वोद्धव्यम् । पक्षस्य प्रत्यक्षवाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । यच्च तत्सिद्धी प्रतिभासमानत्वसाधनमुक्तम् । तदपि साधनाभासत्वेन न प्रकृतसाध्यसाधनायालम् । प्रतिभासमानत्वं हि निखिलभावानां स्वतः परतो वा । न तावत्स्वतो, घटपटमुकुटशकटादीनां स्वतः प्रतिभासमानत्वेनासिद्धेः । ॥१०५॥ परतः प्रतिभासमानत्वं च परं विना नोपपद्यते । इति । ___ और जो उन्होंने ' विधि ही तत्त्व है प्रमेय होनेसे ऐसा अनुमान कहा है, उसका भी इस उक्त कथनसे ही खंडन होगया;