Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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रा.जै.शा.
साद्वादमं ॥१०॥
तेषां प्रकाशकत्वात् सत्ताद्वैतस्यैव साधकम् । सत्तायाश्च परमब्रह्मरूपत्वात् । तदुक्तं " यदद्वैतं तद्ब्रह्मणो रूपम्" इति ।
और जैसे प्रत्यक्षसे विधिकी प्रतीति होती है, उसीप्रकार परस्पर व्यावृत्तिका अर्थात् एक पदार्थकी दूसरे पदार्थके साथ आपसमें भिन्नताकी प्रतीति भी प्रत्यक्षसे ही होती है, इसकारण द्वैतकी सिद्धि होती है, ऐसा कोई कहे तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि, निषेध करना यह प्रत्यक्षका विषय नहीं है। कारण कि, “ विद्वानोंने प्रत्यक्षको विधायक माना है, निषेधक नहीं माना ” इत्यादि आगमका वचन है । और जो घट-पट आदिके भेदको सिद्ध करनेवाला सविकल्पक प्रत्यक्ष है वह भी सत्तारूपसे परस्पर संबंधको प्राप्त हुए ही जो घट पट आदि पदार्थ है उनका प्रकाशक है। इसकारण सत्ताके अद्वैतको ही सिद्ध करनेवाला है । और जो सत्ता है, वह परमब्रह्मरूप है । सोही कहा है कि,- "जो अद्वैत ( एकता ) है वही ब्रह्मका रूप है"। __ अनुमानादपि तत्सद्भावो विभाव्यत एव । तथा हि विधिरेव तत्त्वं प्रमेयत्वात् । यतः प्रमाणविषयभूतोऽर्थः प्रमेयः । प्रमाणानां च प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्तिसंज्ञकानां भावविषयत्वेनैव प्रवृत्तेः। तथाचोक्तम् । “प्र-Y त्यक्षाद्यवतारः स्याद्भावांशो गृह्यते यदा। व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृक्षिते ॥१॥" यच्चाभावाख्यं प्रमाणं तस्य | प्रामाण्याभावान्न तत्प्रमाणम् । तद्विपयस्य कस्यचिदप्यभावात् । यस्तु प्रमाणपञ्चकविपयः स विधिरेव । तेनैव च प्रमेयत्वस्य व्याप्तत्वात् । सिद्धं प्रमेयत्वेन विधिरेव तत्त्वं, यत्त न विधिरूपं, तन्न प्रमेयम् । यथा खरविपाणम् । प्रमेयं चेदं निखिलं वस्तुतत्त्वम् । तस्माद्विधिरूपमेव ।। ___ और अनुमान प्रमाणसे भी उस एक परमब्रह्मका सद्भाव जाननेम आता ही है । सोही अनुमानका प्रयोग दिखलाते है कि,विधि ही तत्त्व है प्रमेय होनेसे । क्योंकि प्रमाणका विषयभूत जो पदार्थ है वह प्रमेय कहलाता है। और प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान तथा अर्थापत्ति नामक जो पांच प्रमाण है वे सब भाव ( अस्तित्व ) को ग्रहण करके ही प्रवृत्त होते है । सो ही कहा है कि " जब भावाशको ग्रहण किया जाता है अर्थात् पदार्थकी सत्ताका ज्ञान करनेमें आता है तब प्रत्यक्ष आदि पाची प्रमाणोका अवतार होता है अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणोंकी उत्पत्ति होती है, और जब पदार्थके अभावांग ( अविद्यमानत्व ) का ग्रहण करनेकी इच्छा होती है, तब प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकी अनुत्पत्तिका व्यापार होता है अर्थात् अभावागके ग्रहण करनेमें प्रत्यक्ष आदि
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