Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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प्रतिवादी ब्राह्मणमें हेतुताका आरोप करके अर्थात् ब्राह्मणरूप सामान्यको हेतु बनाकर उसके कथनका खंडन करनेको तैयार होता है कि यदि ब्राम्हणमें विद्या तथा आचरणकी संपदा होती है तो व्रात्यमें भी अर्थात् जो जातिसे तो ब्राह्मण है; परतु संस्कार आदिसे रहित होनेके कारण ब्राह्मणोंके समूहसे गिर गया है; उसमें भी वह विद्या और आचरणकी संपदा होवे । क्योंकि व्रात्य भी ब्राह्मण ही है अर्थात् यद्यपि ब्राह्मणोंने उसको अपने समूहमेंसे निकाल दिया है तथापि वह ब्राह्मण मातापिता-IISS
ओंके योगसे उत्पन्न हुआ है, अत: वह भी ब्राह्मण ही है । २ । उपचार ( लक्षणा ) से किये हुए प्रयोगमें मुख्य अर्थका निषेध IN करके जिसमें वादीके कथनसे विरुद्ध कथन किया जावे; वह उपचारछल कहलाता है । जैसे—' मंच ( मांचे अर्थात् खाटें )
रुदन करती हैं ' इस प्रकार वादीके कहनेपर पर उपचारछलसे कथन करनेवाले प्रतिवादी विरुद्ध भाषण करते है किं; अचेतन |
मंच कैसे रुदन करते है ? मंचपर स्थित पुरुष रुदन करते है । भावार्थ-तुम जो कहते हो कि,-' मंच रुदन करते है, ' सो | IMI ठीक नहीं है; क्योंकि मंच तो अचेतन है; अतः तुमको मंचपर बैठे हुए मनुष्य रुदन करते है, ऐसा कहना चाहिये ।
तथा सम्यग्हेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिविम्वनप्रायं किमपि प्रत्य
वस्थानं जातिर्दूषणाभास इत्यर्थः । सा च चतुर्विशतिभेदा साधादिप्रत्यवस्थानभेदेन । यथा-साधर्म्यवैधोत्कपाषाऽपकषेवण्योऽवण्येविकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्ताऽनुत्पत्तिसंशयप्रकरणाऽहेत्वर्थापत्त्यविशेपोपपत्त्युपल ||
ध्यनुपलब्धिनित्याऽनित्यकार्यसमाः। IF तथा जब वादी निर्दोष हेतु अथवा हेत्वाभासका प्रयोग करे तब उस वादीके कथनमें किसी दोषका प्रतिभास न होनेपर भी
अर्थात् दोष मालूम हुए विना भी जो, प्रायः हेतुके समान प्रतीत हो, ऐसा शीघ्रतासे कुछ भी विरुद्ध कह देना है; उसको । जाति अथवा दूषणाभास कहते है । वह साधर्म्यआदिसे प्रत्यवस्थान ( विरुद्ध भाषण करने ) रूप भेदोंसे चौवीस २४ प्रकारकी है।
वे चौवीस भेद निम्नलिखित है--साधर्म्य १, वैधर्म्य २, उत्कर्ष ३, अपकर्ष ४, वर्ण्य ५, अवर्ण्य ६, विकल्प ७, साध्य ८, Kा प्राप्ति ९, अप्राप्ति १०, प्रसंग ११, प्रतिदृष्टान्त १२, अनुत्पत्ति १३, संशय १४, प्रकरण १५, हेतु १६, अर्थापत्ति १७, | अविशेष १८, उपपत्ति १९, उपलब्धि २०, अनुपलब्धि २१, नित्य २२, अनित्य २३, और कार्यसम २४ ।।
तत्र साधर्येण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिर्भवति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति प्रयोगे कृते