Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्थाद्वादम. है उसरूप ) ज्ञान होता है, उस ज्ञानसे अर्थका प्रकाश होता है; पदार्थके प्रकाशसे अर्थापत्ति होती है और अर्थापत्तिसे प्रवर्तक
( पदार्थको प्रकाशित करनेवाले ) ज्ञानका ज्ञान होता है' इस प्रकारसे त्रिपुटी प्रत्यक्षकी कल्पना की है, अर्थात् तीन पुट ॥९६॥ (चक्कर) लगाकर ज्ञानका प्रत्यक्ष माना है वह केवल परिश्रमरूप फलको ही धारण करती है । भावार्थ-भट्टोंने ज्ञानको स्वसंवे
Kादन न मानकर जो इतना वाग्जाल फैलाया है, उससे लाभके बदले परिश्रमकी वृद्धिरूप हानि ही होती है। l यौगास्त्वाहुः । ज्ञानं स्वान्यप्रकाश्यम् ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति प्रमेयत्वात् । घटवत् । समुत्पन्नं हि ज्ञानमेकात्मसमवेताऽनन्तरोद्भविष्णुमानसप्रत्यक्षेणैव लक्ष्यते न पुनः स्वेन । नचैवमनवस्था । अर्थावसायिज्ञानोत्पादमात्रेणैवार्थसिद्धौ प्रमातुः कृतार्थत्वात् । अर्थज्ञानजिज्ञासायां तु तत्रापि ज्ञानमुत्पद्यत एवेति । ' और यौग (नैयायिकमतावलम्बी पुरुष ) यह कहते है कि,-'ज्ञान अपनेसे भिन्न जो कोई दूसरा है, उससे प्रकाशित होता म है, ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न होकर प्रमेय (प्रमाणका विषय ) होनेसे घटके समान । भावार्थ-जैसे घट पदार्थ ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न * है और प्रमेय है उसीप्रकार संसारी जीवोंका ज्ञान भी ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न तथा प्रमेय है अतः जैसे घटका ज्ञान घटसे भिन्न
जो ज्ञान है; उससे होता है, उसीप्रकार ज्ञानका ज्ञान भी दूसरेसे होता है अर्थात् जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह उसी आत्मामें
समवायसंबंधसे रहनेवाला तथा ज्ञानकी उत्पत्तिके पश्चात् ही उत्पन्न होनेवाला ऐसा जो मानस प्रत्यक्ष है उसीके द्वारा जाना ५ जाता है और अपने द्वारा अपना ज्ञान नहीं करता है। और इस हमारे मतमें अनवस्था दोप नहीं होता है। क्योंकि प्रमाता
(ज्ञानको करनेवाला ) जो है, वह पदार्थका निश्चय करानेवाले ज्ञानकी उत्पत्ति होनेसे ही प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर कृतार्थ शू ( संतुष्ट ) हो जाता है । और जब प्रमाताके पदार्थके ज्ञानकी जिज्ञासा ( जाननेकी इच्छा ) होती है, तो उस जिज्ञासामें भी Kज्ञान उत्पन्न होता ही है।'
तदयुक्तं पक्षस्य प्रत्यनुमानवाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । तथा हि-विवादास्पदं ज्ञानं स्वसंविदितं ज्ञानत्वात् । ईश्वरज्ञानवत् । न चायं वाद्यप्रतीतो दृष्टान्तः पुरुषविशेषस्येश्वरतया जैनैरपि स्वीकृतत्वेन तज्ज्ञानस्य तेषां प्रसिद्धेः।
॥९६॥