Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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यदि ऐसा कहो कि,-नेत्र आदि प्रकाशक है तो भी निजका प्रकाश नही करते है अर्थात् नेत्र दूसरे पदार्थोंको तो प्रकट | करता है, परंतु खयं अप्रकट रहता है, इस कारण प्रकृत अनुमानमें जो आपने प्रकाशकत्व हेतु दिया है; वह अनैकान्तिक है। अर्थात् 'यह प्रकाशकत्व हेतु ज्ञान आदिमें तो खप्रकाशकताको सिद्ध करता है और नेत्र आदिमें स्वप्रकाशकताको सिद्ध नहीं
करता है। इसकारण व्यभिचारसहित है, तो उत्तर यह है कि, इस अनुमानमें प्रकाशकत्व हेतुके नेत्र आदिसे अनैकान्तिकता| a सिद्ध नही होती है । क्योंकि; लब्धि और उपयोगरूप जो भाव इन्द्रिये है; उन भाव इन्द्रियोंरूप जो नेत्र आदि है; उनके ही
प्रकाशकपना है और जो भावइन्द्रियरूप नेत्र आदि हैं, वे खसंवेदन ( स्वप्रकाशक ) रूप है ही । भावार्थ-हमारे ( जैनियोंके ) मतमें द्रव्य और भावरूप भेदोंसे इन्द्रियें दो प्रकारकी है। इनमें द्रव्येन्द्रिय भी दो प्रकारकी है एक निर्वृत्तिरूप और दूसरी उपकरणरूप, शरीरमें जो नेत्र आदिके आकारोंकी रचना है, वह निर्वृत्तिरूप द्रव्येन्द्रिय है, और ( नेत्रादिकी ) रक्षा करनेके लिये
जो नेत्रादिपर डोला भाफणी आदि है वह उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय कहलाती हैं । यह द्रव्येन्द्रिय जडरूप है । और लब्धि तथा का उपयोग, इन भेदोंसे भाव इन्द्रिय भी दो प्रकारकी है। इनमें नेत्र आदिमें स्थित आत्मप्रदेशोंमें जो देखनेकी शक्तिकी प्रकटता है।
सो लब्धिरूप भावेन्द्रिय है और जो देखने आदिकी तरफ आत्माका ध्यान होता है; वह उपयोगरूप भावेन्द्रिय है। यह भावेन्द्रिय चेतनरूप है, और जैसे पदार्थको जानती है उसीप्रकार अपने स्वरूपको भी जानती है । इसकारण तुम भावेन्द्रियरूप नेत्र आदिको अप्रकाशक कहकर उससे हमारे प्रकाशकत्व हेतुमें अनैकान्तिकता सिद्ध नहीं कर सकते हो। और ज्ञान जो है; || वह स्वप्रकाशक है, पदार्थको जाननेवाला होनेसे । जो खप्रकाशक नहीं है। वह पदार्थका ज्ञाता भी नहीं है । जैसे कि-घट । भावार्थ-अर्थका प्रकाशक होनेसे ज्ञान खप्रकाशक है, जो अर्थका प्रकाशक नही है, वह खप्रकाशक भी नहीं है, जैसे कि; घट || अर्थका प्रकाशक नहीं है, इसलिये खप्रकाशक भी नहीं है । इस अनुमानके प्रयोगसे भी ज्ञानके खसंवेदनता सिद्ध होती है। G ___ तदेवं सिद्धेऽपि प्रत्यक्षानुमानाभ्यां ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे “संप्रयोगे इन्द्रियबुद्धिजन्मलक्षणं ज्ञानं, ततोऽर्थ-|| प्राकट्यं तस्मादापत्तिस्तया प्रवर्तकज्ञानस्योपलम्भः” इत्येवंरूपा त्रिपुटीप्रत्यक्षकल्पना भट्टानां प्रयासफलैव।
इस प्रकारसे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणद्वारा ज्ञानके स्वसंवेदनपना सिद्ध होता है तो भी भट्टमतानुयायियोंने जो ' सत्संप्रयोग होनेपर (पदार्थका इन्द्रियोंके साथ संबंध होनेपर) इन्द्रियबुद्धिजन्मरूप लक्षणका धारक (इन्द्रियोंमें जो बुद्धि उत्पन्न होती