Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादमं. ॥१००॥
अर्थक्रियामें समर्थ पदार्थो को दिखलानेमें समर्थ स्वीकार करनेपर उन वेदान्तवादियों को भी अपने वचनसे विरोध आता है, यह स्पष्ट ही है । इस प्रकार काव्यका सक्षेपसे अर्थ है ॥
व्यासार्थस्त्वयम् । ते वादिन इदं प्रणिगदन्ति तात्त्विकमात्मन्ब्रह्मैवास्ति । " सर्व स्वल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्च न । आरामं तस्य पश्यन्ति न तत्पश्यति कश्चन ॥ १ ॥ " इति न्यायात् । अयं तु प्रपञ्चो मिथ्यारूपः, प्रतीयमानत्वात् । यदेवं तदेवम् । यथा शुक्तिशकले कलधौतम् । तथा चायं तस्मात्तथा ।
विस्तारसे तो काव्यका अर्थ यह है - वे वेदान्तवादी यह कहते है कि " जो आत्मब्रह्म है वही तात्त्विक अर्थात् वस्तु तथा परमार्थरूप है। क्योंकि -" यह सब ब्रह्मरूप है, इसमें नानाप्रकारका कुछ भी नहीं है। उसके आराम ( प्रपच ) को सब देखते हैं परतु उस ब्रह्मको कोई भी नहीं देखता है ” इत्यादि आगमके वचन है । और यह ( देखने में आता हुआ ) प्रपच मिथ्यारूप है; क्योंकि प्रतीयमान है अर्थात् इसकी प्रतीति होती है । जो प्रतीत होता है, वह मिथ्यारूप होता है । जैसे सीपके टुकड़ेमें चांदी प्रतीत होती है; इसकारण सीपके टुकड़ेमें चांदी मिथ्यारूप है । उसीप्रकार यह प्रपंच भी है, इसप्रकारण मिथ्यारूप है ।
तदेतद्वार्त्तम् । तथा हि मिथ्यारूपत्वं तैः कीदृग् विवक्षितम् । किमत्यन्तासत्वम्, उतान्यस्यान्याकारतया प्रतीतत्वम्, आहोस्विदनिर्वाच्यत्वम् । प्रथमपक्षेऽसत्ख्यातिप्रसङ्गः । द्वितीये विपरीतख्याति स्वीकृतिः । तृतीये तु किमिदम् अनिर्वाच्यत्वम् । निःस्वभावत्वं चेत् निसः प्रतिषेधार्थत्वे स्वभावशब्दस्यापि भावाभावयोरन्यतरार्थत्वेऽसत्ख्यातिसत्ख्यात्यभ्युपगमप्रसङ्गः । भावप्रतिषेधेऽसत्ख्यातिर भावप्रतिषेधे सत्ख्यातिरिति ।
रा. जै.शा.
सो यह वेदान्तियोंका कहना असत्य है । अब वेदांतियोंका कथन असत्य क्यो है सो ही दिखलाते है । ——उन वेदान्तवादियोंने मिथ्यारूपत्वको कैसा कहना चाहा है अर्थात् क्या जो अत्यंत असत्रूप है उसको मिथ्यारूप कहना चाहते है, अथवा अन्य पदार्थकी अन्य आकारतासे जो प्रतीति होती है उसको मिथ्यारूप कहना चाहते हैं । वा जो अनिर्वाच्य ( कहने योग्य नहीं ) है उसको मिथ्यारूप कहना चाहते है । प्रथम पक्षमें अर्थात् यदि वे अत्यंत असत् ( अविद्यमान ) रूप पदार्थको मिथ्यारूप कह तब तो उनको असत् ख्यातिका प्रसंग होगा अर्थात् असत् पदार्थको मिथ्यारूप कहनेसे उनको असत्पदार्थके कथन करनेका दोष आवेगा । और दूसरे पक्षमें अर्थात् यदि वे अन्यपदार्थकी अन्य आकारसे जो प्रतीति होती है अर्थात् रज्जुमें जो सर्पका ज्ञान होता
॥१००॥