Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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నా వారు వారి వా
|| सो यह तुम्हारा कथन ठीक नहीं है, क्योकि; ज्ञानको अस्वसंविदित माननेरूप जो पक्ष है; वह प्रत्यनुमानसे बाधित है; इस
कारण हेतु कालात्ययापदिष्ट है । उस प्रत्यनुमानका प्रयोग निम्नलिखित प्रकारसे है ।" विवादका स्थानभूत जो ज्ञान है; वह | स्वसंविदित है, ज्ञान होनेसे ईश्वरके ज्ञानके समान अर्थात् जैसे ईश्वरका ज्ञान स्वप्रकाशक है; उसीप्रकार अन्यजीवोंका ज्ञान भी || || स्वप्रकाशक है, क्योंकि, ईश्वरज्ञानके समान वह भी ज्ञान है" और इस दृष्टान्तको वादी ( जैनी ) नहीं मानते है अर्थात् जैनी KI | ईश्वरको नहीं मानते है और जब ईश्वरको नहीं मानते है तो यहॉपर ईश्वरके ज्ञानका दृष्टान्त देकर उसके द्वारा हमारा खंडन कैसे कर सकते है यह न कहना चाहिये, क्योंकि जैनियोंने भी किसी २ पुरुषविशेषको ईश्वररूप स्वीकार किया है; इसकारण |
जैनियोंके ईश्वरका ज्ञान प्रसिद्ध ही है । NI व्यर्थविशेष्यश्चात्र तव हेतुः समर्थविशेषणोपादानेनैव साध्यसिद्धेरग्निसिद्धौ धूमवत्वे सति द्रव्यत्वादितिवत् ।
ईश्वरज्ञानान्यत्वादित्येतावतैव गतत्वात् । न हीश्वरज्ञानादन्यत्स्वसंविदितमप्रमेयं वा ज्ञानमस्ति यद्व्यवच्छेदायला प्रमेयत्वादिति क्रियेत, भवन्मते तदन्यज्ञानस्य सर्वस्य प्रमेयत्वात् । | और इस प्रकृत अनुमानमें जो तुमने हेतु दिया है; वह व्यर्थविशेप्यका धारक है; क्योंकि, समर्थविशेषणको ग्रहण करनेसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है। भावार्थ-जैसे पर्वत अग्निका धारक है धूमवान् होकर द्रव्यत्व होनेसे; इस अनुमानमें धूमवान् ||४|| होनेसे इस समर्थ विशेषणके देनेसे ही पर्वतमें अग्निकी सिद्धि हो जाती है अतः द्रव्यत्वरूप जो हेतुका विशेष्य है, वह व्यर्थ है, || उसीप्रकार ज्ञान किसी दूसरेसे प्रकाशित होता है ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न होकर प्रमेयत्व होनेसे, इस अनुमानमें ईश्वरज्ञानसे भिन्न होनेसे, इस समर्थ विशेषणके देनेसे ही ज्ञानके परप्रकाशकता सिद्ध हो जाती है। इस कारण तुमने जो हेतुका प्रमेयत्वरूप विशेष्य ॥ दिया है, वह व्यर्थ ( निप्प्रयोजन ) है. क्योंकि, ईश्वरके ज्ञानके सिवाय अन्य कोई दूसरा ज्ञान खसंविदित अथवा अप्रमेय नहीं
है कि; जिसको दूर करनेके लिये तुम प्रकृतअनुमानमें प्रमेयत्व होनेसे, ऐसा कथन करो, कारण कि तुम्हारे मतमें ईश्वरके ज्ञानसे | | भिन्न जितने ज्ञान है, वे सभी प्रमेयत्वको धारण करते है। | अप्रयोजकश्चायं हेतुः सोपाधित्वात् । साधनाव्यापकः साध्येन समव्याप्तिश्च खलूपाधिरभिधीयते । तत्पुत्रत्वादिना श्यामत्वे साध्ये शाकाद्याहारपरिणामवत्। उपाधिश्चात्र जडत्वम् । तथाहि-ईश्वरज्ञानाऽन्यत्वे प्रमेयत्वे च
రు వారు, వారు
నాకు అని