Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्थाद्वादम.
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राजै.शा. लिये कही गई हैं। इसीप्रकार बाकी की जो बीस जातियें हैं। उनका खरूप भी गोतमके शास्त्र (न्यायदर्शनसूत्र अथवा नैयायिकोंके ग्रन्थों ) से जान लेना चाहिये । इस प्रकृत ग्रन्थमें तो वे अनुपयोगी है, इसलिये उनका स्वरूप नहीं लिखा गया है। काका
तथा विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम । तत्र विप्रतिपत्तिः साधनाभासे साधनबुद्धिर्दपणाभासे च दपणबुद्धिरिति । अप्रतिपत्तिः साधनस्यादृषणं दूषणस्य चानुद्धरणम्।तच्च निग्रहस्थानं द्वाविंशतिविधम्।तद्यथा-प्रति हानिः, प्रतिज्ञान्तरं, प्रतिज्ञाविरोधः, प्रतिज्ञासंन्यासः, हेत्वन्तरं, अर्थान्तरं, निरर्थकं, अविज्ञातार्थ, अपार्थकं, अप्राप्तकालं, न्यूनं, अधिकं, पुनरुक्तं, अननुभाषणं, अज्ञानं, अप्रतिभा, विक्षेपः, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षणं, निरनुयोज्यानुयोगः, अपसिद्धान्तः, हेत्वाभासाश्च। 7 और विप्रतिपत्ति तथा अप्रतिपत्ति जो है; उसको निग्रहस्थान कहते हैं। उनमें साधनाभासमें अर्थात् जो यथार्थमें तो साधन न हो, परतु साधन जैसा जान पड़े उसमें जो साधनकी बुद्धि है अर्थात् साधनपना मान लेना है; वह, तथा दूपणाभास (दूषणके 1. समान प्रतीत होनेवाले ) में जो दूषणकी बुद्धिका होना है; वह ऐसे इन दोनों प्रकारोंरूप तो विप्रतिपत्ति है । और साधनका अदूषण अर्थात् प्रतिवादीके साधनको दोषरहित मानलेना तथा प्रतिवादीके दिये हुए दूषणको दूर न करना, इन दोनों प्रकारोंरूप अप्रतिपत्ति है । यह निग्रहस्थान बाईस २२ प्रकारका है। वे भेद इस निम्न लिखित रीतिसे है-प्रतिज्ञाहानि १, प्रतिज्ञान्तर २, प्रतिज्ञाविरोध ३, प्रतिज्ञासंन्यास ४, हेत्वन्तर ५, अर्थान्तर ६, निरर्थक ७, अविज्ञातार्थ ८, अपार्थक ९, अप्राप्तकाल १०, न्यून ११, अधिक १२. पुनरुक्त १३, अननुभाषण १४, अज्ञान १५, अप्रतिभा १६, विक्षेप १७ मतानुज्ञा १८, पर्यनुयोज्यो|पेक्षण १९, निरनुयोज्यानुयोग २०, अपसिद्धान्त २१ और हेत्वाभास २२ । | तत्र हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्युपगच्छतःप्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानम् । यथाऽनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वाद् घटवदिति प्रतिज्ञासाधनाय वादी वदन् परेण सामान्यमन्द्रियकत्वमपि नित्यं दृष्टमिति हेता
वनैकान्तिकीकृते यद्येवं ब्रूयात् सामान्यवद्घटोऽपि नित्यो भवत्विति । स एवं ब्रुवाणः शब्दाऽनित्यत्वप्रतिज्ञा है जह्यात् । प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव धर्मिणि धर्मान्तरं साधनीयमभिदधतः प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रह
स्थानं भवति । अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वादित्युक्ते तथैव सामान्येन व्यभिचारे चोदिते यदि ब्रूयायुक्तं सामान्य