Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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-जब
क्योंकि, एक शरीरमें आत्माका आरंभ करनेवाले बहुतसे आत्मा नही हो सकते हैं अर्थात् बहुतसे आत्मा एक आत्माको ह | सकते है । अथवा यदि एक आत्माको उत्पन्न करनेवाले बहुतसे आत्मा होसकें तौ भी प्रतिसधान ( स्मरण ) की उत्पत्ति नही हो सकती है। क्योंकि, अतिप्रसंग होनेसे अन्य आत्मासे देखे हुएका दूसरा आत्मा स्मरण करनेको समर्थ नही है । भावार्थबहुतसे आत्मारूप कारण एक आत्माको उत्पन्न करने लगेंगे तब एक आत्मारूप कारणने जो देखा है; उसका दूसरा आत्मारूप कारण स्मरण नहीं कर सकेगा, और ऐसा होगा तब आत्मारूप कार्यकी सिद्धि न होगी । और यदि उन आत्मारूप सजातीयकारणोंसे आत्मानामक कार्य उत्पन्न किये जाने योग्य होगा तो घटके समान उस आत्माका भी अवयवक्रियासे विभाग होनेके कारण संयोगका विनाश हो जानेसे विनाश हो जावेगा भावार्थ - जैसे घटरूपकार्यका अवयवक्रियासे विभाग होता है और विभाग के होनेसे पूर्वसयोगका ( कपालद्वयसंयोग ) का नाश होता है, जिससे घटका भी नाश हो जाता है; इसी प्रकार आत्मारूप कार्यका भी अवयवक्रियासे विभाग और विभागसे संयोगका नाश होनेपर नाश हो जावेगा, और आप ( जैनियों) ने आत्माको नित्य माना है, अत आत्माका नष्ट होना आपको इष्ट नहीं है । इसकारण आप ( जैनियों ) को आत्मा व्यापक ही है, ऐसा मानना ठीक है । क्योंकि शरीरपरिमाण ( जितना बडा शरीर हो उतना ही बड़ा ) आत्मा माननेमें ऊपर कहे हुए अनेक दोष उत्पन्न होते है । सो ठीक नही है अर्थात् तुम ( वैशेषिकों ) ने जो 'आत्माको व्यापक न मानोगे तो आत्मा अवयवोंका धारक तथा कार्यरूप हो जानेसे अनित्य हो जावेगा ' यह दोष दिया है, वह दोष हमारे दोषरूप नही है । क्योंकि हम ( जैनियो ) ने किसी अपेक्षासे आत्मामें अवयवसहितपना तथा कार्यपना स्वीकार किया है । उनमें आत्मा असंख्यात प्रदेशोंवाला है; इस कारणसे तो आत्मामें अवयवसहितपना है । सो ही द्रव्यालंकारनामक ग्रन्थके रचनेवाले कहते है कि; " आकाश भी प्रदेशोंका धारक है, क्योंकि, एक | ही समय में समस्त मूर्त्त पदार्थोंसे सम्बन्ध रखनेयोग्य है अर्थात् आकाशमें एक ही समयमें सब मूर्त्तपदार्थ विद्यमान रहते है; अतः आकाश प्रदेशोंका धारक है । " भावार्थ- - उक्त प्रमाणसे जैसे हम आकाशको नित्य मानकर भी प्रदेशोंका धारक मानते है; उसी प्रकार आत्माको भी नित्य मानकर किसी अपेक्षासे अवयवसहित मानते है । [ यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रपर दिगम्बराचार्य श्रीसमन्त| भद्रखामीविरचित जो ८४००० लोकपरिमाण गधहस्तिनामक महाभाष्य है; उसको आदि ले कितने ही शास्त्रोंमें 'अवयव तथा प्रदे