Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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लकी नालीके तन्तुओंके छेदके समान माना है भावार्थ-जैसे कमलकी नाली ( दंडी ) का टुकड़ा करने पर उस नालीके तंतु- | ओंका विभाग होता है; परंतु वे तंतु पूर्व तंतुओंमें आ मिलते है; इसी प्रकार यद्यपि शरीरका खंडन होनेपर आत्माके प्रदेशोंका ll विभाग होता है; तथापि वे आत्माके प्रदेश पूर्व आत्मप्रदेशोंमें आ मिलते हैं । और उस प्रकारके अदृष्टके वशसे उन खंडित आत्मप्रदेशोंका परस्पर मिलना विरोधरहित ही है। भावार्थ-जैसे तुम्हारे मतमें पाकमें गेरे हुए घटके परमाणु भिन्न २ होकर फिर वैसे अदृष्टके वशसे मिलकर घटरूप हो जाते है, उसीप्रकार आत्माके प्रदेश भी भिन्न २ होकर पुनः परस्पर मिल जाते है; अतः हमारे माननेमें कोई विरोध नहीं है । इस कारण तुम ( वैशेषिको ) को आत्मा शरीरपरिमाण ही मानना चाहिये और व्यापक न मानना चाहिये । इस उक्तविषयको सिद्ध करनेके लिये अनुमानका प्रयोग भी है। वह यह है-'आत्मा व्यापक नहीं है । क्योंकि चेतन है, जो व्यापक होता है; वह चेतन नहीं होता है । जैसे कि-आकाश व्यापक है; अतः चेतन नहीं है। और आत्मा चेतना है, इस कारण व्यापक नही है । ' इस अनुमानसे जब आत्मा व्यापक न हुआ तो अव्यापक सिद्ध हुआ और अव्यापक होनेपर इस आत्माके गुण शरीरमें ही प्राप्त होते है; इसकारण आत्मा शरीरपरिमाण है; यह सिद्ध हो चुका। और हम जैनियोंके भी जो आठ ८ समयोंसे सिद्ध (पूर्ण) होनेयोग्य केवलिसमुद्घातकी दशामें चौदह रज्जुपरिमाण तीन लोक व्याप्त हो जानेसे आत्मा सर्वव्यापक है, वह कादाचित्क (किसी समयमें हुआ करता) है इस कारण उससे यहां व्यभिचार नहीं होता है। भावार्थ-यद्यपि हम (जैनियों) ने आत्माको केवलिसमुद्धातदशामें सर्वव्यापक माना है। क्योंकि केवलिसमुद्धातदशामें आत रूप होकर तीनलोकमें व्याप्त हो जाते है, परन्तु वह केवलिसमुद्धात किसी समय किसी आत्माके हो जाता है नियमित नहीं है।
इसकारण तुम आत्माको अव्यापक माननेरूप इस अनुमानमें दोष नहीं दे सकते हो । और स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद ) रूपी थकवच ( वकतर ) से ढके हुए हम जैनियोंको तुम्हारी ऐसी विभीषिकाओंसे अर्थात् व्यभिचारादिदोषरूप भयोंको उत्पन्न करनेवाली
कुयुक्तियोंसे भय ( डर ) नही है। इस प्रकार काव्यका अर्थ है ॥९॥ | वैशेषिकनैयायिकयोः प्रायः समानतन्त्रत्वादौलूक्यमते क्षिप्ते यौगमतमपि क्षिप्तमेवावसेयम् । पदार्थेषु च तयोरपि न तुल्या प्रतिपत्तिरिति सांप्रतमक्षपादप्रतिपादितपदार्थानां सर्वेषां चतुर्थपुरुषार्थ प्रत्यसाधकतमत्वे वाच्येऽपि