Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादमं. ॥ ७२ ॥
लक्षणं हेतुशब्देन - करणमेव विवक्षितं तर्हि तज्ज्ञानमेव युक्तं न चेन्द्रियसन्निकर्षादि । यस्मिन् हि सत्यर्थ उपलब्धो भवति स तत्करणम् । न चेन्द्रियसन्निकर्षसामग्र्यादौ सत्यपि ज्ञानाभावेऽर्थोपलम्भः । साधकतमं हि करणम् । अव्यवहितफलं च तदिष्यते । व्यवहितफलस्यापि करणत्वे दुग्धभोजनादेरपि तथाप्रसङ्गः । तन्न ज्ञानादन्यत्र प्रमाणत्वम् । अन्यत्रोपचारात् । यदपि न्यायभूषणसूत्रकारेणोक्तं-" सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्” इति । तत्रापि साधनग्रहणात्कर्तृकर्मनिरासेन करणस्यैव प्रमाणत्वं सिध्यति । तथाप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैव । इति न तत्सम्यग्लक्षणम्। "स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । " इति तु तात्त्विकं लक्षणम् ।
अब यदि यह । नैयायिक यह कहै कि, हम क्रियाका निषेध नहीं करते है; अर्थात् सूत्रमें १६ पदार्थोंके तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है ऐसा कहनेसे यह न समझना चाहिये कि, हम क्रिया ( आचरण व चारित्र ) को मोक्षकी प्राप्तिके प्रति कारण नहीं मानते है, किन्तु सोलहपदार्थोंके तत्त्वज्ञान पूर्वक ( सहित ) जो क्रिया है; वही मुक्तिकी कारणभूता है; इस आशयको विदित करनेके लिये ' तत्त्वज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, ऐसा कहते हैं । सो यह भी उनको न कहना चाहिये । क्योंकि पदार्थोंके ज्ञान और क्रिया ये दोनों मिले हुए भी मोक्षकी प्राप्तिमें कारणभूत नही हैं अर्थात् इन सोलह पदार्थों संबंधी ज्ञान और क्रियाके समुदायको भी मोक्षका कारण मानना ठीक नहीं है । क्योंकि उन पदार्थोंसंबंधी जो ज्ञान तथा क्रिया है; वे दोनों ही मिथ्या है। और मिथ्यापना असिद्ध नहीं है। कारण कि - परीक्षा करनेपर ये सोलह ही पदार्थ तत्त्वाभास सिद्ध होते हैं। सो ही दिखलाते है-उन नैयायिकोंने प्रथम ही प्रमाणका लक्षण इस प्रकारसे सूत्रित किया है " अर्थोपलब्धिमें अर्थात् पदार्थ के प्रत्यक्षमें जो हेतु है; वह प्रमाण है " । और यह प्रमाणका लक्षण विचारको नही सहता है अर्थात् विचार करनेपर असत्य सिद्ध होता है । क्योंकि; यदि अर्थोपलब्धिमें हेतु जो है वह निमित्तमात्र है अर्थात् जो जो अर्थोपलब्धिमें निमित्तकारण है; उस २ सभीको अर्थोपलब्धिमें हेतु कहोगे तो वह हेतुत्व सब कारकोंमें साधारण है; अतः कर्त्ता, कर्म आदिके भी प्रमाणताका प्रसंग
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१ यत्र हि प्रमात्रा व्यापारिते सत्यवश्यं कार्योत्पत्तिरन्यथा पुनरनुत्पत्तिरेव तत्तत्र साधकतमम् । यथा छिदायां दात्रम् । तथाचोक्त-" क्रियाया. परनिष्पत्ति यद्वधाहारादनन्तरम् । विवक्ष्यते यदा नत्र करणत्वं तदा स्मृतम् ॥ १ ॥ " २ कारणे कार्योपचारात् कार्ये कारणोपचाराद्वा प्रमाणभूतेन पक्षहेतुवचनात्मकेन परार्थानुमानेन व्यभिचारवारणाय अन्यत्रोपचारादित्युक्तम् ।
॥ ७२ ॥
रा. जै.शा.