Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्साद्वादमं.
उनका जो अत्यंत नाश है, वह मोक्ष है, ऐसा वचन है। [न संविदानन्दमयी च मुक्तिः ] यहां पर च शब्द पहिले कहे हुए
KG किसी पदार्थमें सत्ता है १, ज्ञान आत्मासे भिन्न है २, इन ) दो मतोंका समुच्चय ( संग्रह) करनेके लिये है ] भावार्थ॥४६॥
ज्ञान तो क्षणिक होनेसे अनित्य है और सुख हानि और वृद्धिरूप स्वरूपका धारक है. अर्थात् कभी कम हो जाता है, कभी अधिक हो जाता है, इसकारण ससारकी अवस्थासे भिन्न नहीं है अर्थात् ससारकी जैसी दशा है; वैसा ही है । अतः ज्ञान तथा सुख इन दोनोंका नाश होने पर जो आत्माका आत्मखरूपसे रहना है, वही मोक्ष है । इस विषयमें अनुमानका प्रयोग भी है । सो ही दिखलाते है ।-आत्माके नवो विशेषगुणोंका सतान अत्यन्त नष्ट होता है । क्योंकि सतान है । जो जो संतान होता है, वह
वह अत्यत नष्ट होता है। जैसे कि, प्रदीपका संतान अत्यंत नष्ट होता है। वैसा ही यह आत्मविशेषगुणोंका संतान है, इसकाNरण अत्यन्त नाशको प्राप्त होता है । अतः सिद्ध हुआ कि नौ ९ जो आत्मविशेषगुण है, उनके अत्यंतनाशरूप ही मोक्ष है और
आप ( जैनियों) का माना हुआ जो सपूर्णकर्मोंके नाशरूप लक्षणका धारक मोक्ष है; वह मोक्ष नहीं है । और " शरीरके धारक
जीवके निश्चयसे प्रिय (सुख ) तथा अप्रिय ( दुःख) इन दोनोंका नाश नहीं है १, अथवा अशरीर ( शरीरसे रहित ) लाहुएको ही प्रिय-अप्रिय नही स्पर्शते (छूते ) है २, [ यहा पर प्रियसे सुखका और अप्रियसे दुःखका ग्रहण है, और वे प्रिय
अप्रिय अशरीर अर्थात् मुक्त आत्माको नही स्पर्शते है, ऐसा अर्थ समझना चाहिये ] इत्यादि वेदान्तके सूत्र भी ज्ञान और सुखसे रहित ऐसे मोक्षका ही कथन करते है।
| अपि च यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्ना वासनादयः। तावदात्यन्तिकी दुःख-व्यावृत्तिर्न विकल्प्यते ।१। धर्माधर्मनिमित्तो हि सम्भवः सुखदुःखयो। मूलभूतौ च तावेव स्तम्भौ संसारसझनः ।२। तदुच्छेदे च तत्कार्यशरीराद्यनुपप्लवात् । नात्मनः सुखदुःखे स्त-इत्यसौ मुक्त उच्यते । ३ । इच्छाद्वेषप्रयत्नादि भोगायतनवन्धनम् । उच्छिन्नभोगायतनो नात्मा तैरपि युज्यते । ४ । तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः। गुणानामात्मनो ध्वंस: सोऽपवर्गः प्रतिष्ठितः। ५। ननु तस्यामवस्थायां कीदृगात्माऽवशिष्यते । स्वरूपैकप्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः ।६। अमिषट्कातिगं रूपं तदस्याहुर्मनीषिणः। संसारवन्धनाधीन-दुःखक्लेशाद्यदूषितम् । ७। (कामक्रोधलोभगर्वदम्भहर्षाः ऊर्मिषट्कमिति ।"
॥४६॥