Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
View full book text
________________
साद्वादम.
॥५२॥
राजै.शा
जानता है ' यहां भी कर्तृकरणभाव होता है । यदि कहो कि, यह कर्तृकरणभाव परिकल्पित अर्थात् असत्य है; तो सर्पकी वेष्टन अवस्थामें पूर्व अवस्थासे विलक्षण गमनके निरोध रूप अर्थक्रियाको देखनेसे परिकल्पित कैसे है अर्थात् जब सर्प आपको अपनेसे वेढ़ता है, उससमय वह पहलेकी जो गमनरूप अर्थक्रिया है; उसको छोडकर गमनके बंद होनेरूप अर्थक्रियाको धारण करता है। अत: उसमें कर्तृकरणभाव कल्पित नहीं हो सकता है । क्योंकि; सैकडों कल्पनाओसे भी यह पापाणका स्तभ (थंभा) आपको अपनेसे वेष्टित करता है, ऐसा नहीं कह सकते हैं। इस कारण आत्मा और ज्ञान इन दोनोके अभेद होनेपर भी कर्तृकरणभाव सिद्ध हो ही गया । और भी विशेष यह है कि, तुम चैतन्य इस शब्दके यथार्थ अर्थका विचार करो। चेतनका जो भाव होता है; छावह चैतन्य कहलाता है और आत्माको चेतन तुम भी कहते हो, उस आत्माका जो भाव अर्थात् स्वरूप है, वह चैतन्य MI(ज्ञान ) है । और जो जिसका स्वरूप होता है, वह उससे भिन्न नहीं हो सकता है। जैसे कि; जो वृक्षका स्वरूप है, वह ॐ"वृक्षसे कदापि भिन्न नहीं होता है। 2 अथास्ति चेतन आत्मा। परं चेतनासमवायसम्बन्धात्। न स्वतः। तथाप्रतीतेरितिचेत्-तदयुक्तम् । यतः प्रतीति
श्चेत्प्रमाणीक्रियते तर्हि निर्वाधमुपयोगात्मक एवात्मा प्रसिद्ध्यति । न हि जातुचित्स्वयमचेतनोऽहं, चेतनायोगाच्चेपूतनः, अचेतने वा मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति । ज्ञाताहमिति समानाधिकरणतया प्रतीतेः। भेदे
तथाप्रतीतिरिति चेत् । न । कथं चित्तादात्म्याऽभावे सामानाधिकरण्यग्रतीतेरदर्शनात् । यष्टिःपुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचारादृष्टा । न पुनस्तात्विकी । उपचारस्य तु बीजं पुरुपस्य यष्टिगतस्तब्धत्वादिगुणैरभेदः। उपचारस्य मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । तथा चात्मनि ज्ञाताहमितिप्रतीतिः कथंचिच्चेतनात्मतां गमयति । तामन्तरेण ज्ञाताहमिति प्रतीतेरनुपपद्यमानत्वात् । घटादिवत् । न हि घटादिरचेतनात्मको ज्ञाताहमिति प्रत्येति । चैतन्ययोगाऽभावादसौ
न तथा प्रत्येतीतिचेत् । न । अचेतनस्यापि चैतन्ययोगाच्चेतनोऽहमिति प्रतिपत्तेरनन्तरमेव निरस्तत्वात् । इत्यचे ॐ तनत्वं सिद्धमात्मनो जडस्यार्थपरिच्छेदं पराकरोति । तं पुनरिच्छता चैतन्यस्वरूपतास्य स्वीकरणीया। में यदि कहो कि, आत्मा चेतन तो है; परंतु समवायसवंधसे है अर्थात् समवायसवधसे ज्ञान आत्मा समवेत है; अतः ज्ञानके १. योगसे चेतन है और आत्मा स्वय चेतन नहीं है। क्योंकि ऐसी ही प्रतीति होती है । सो यह कहना अनुचित है। क्योंकि,
|
॥५२॥