Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादमं.
॥ ५५ ॥
और ' नहि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति ' इत्यादि आगमका प्रमाण जो तुमने दिया है; उससे भी मुक्त अवस्थामें आत्मा सुखदुःख रहित नही सिद्ध होता है । क्योंकि; वह आगम शुभअदृष्ट (पुण्य) तथा अशुभअदृष्ट ( पाप ); इन दोनोंके उदयसे उत्पन्न हुआ और परस्परानुषक्त (आपसमें एकके पीछे दूसरा लगा हुआ) ऐसा जो संसारसंबंधी सुख तथा दुःख है; उसकी अपेक्षाकरके व्यवस्थित है । और मुक्त अवस्थामें तो समस्त - पुण्य पापके नाशसे उत्पन्न हुआ ऐसा केवल एकान्तिक ( सर्वथा ) तथा आत्यतिक ( फिर नाशको प्राप्त न होनेवाला) सुख ही है । अत: वह आगम उस सुखका निषेध कैसे कर सकता है | तथा आगमका अर्थ यह है कि; सशरीर अर्थात् नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव नामक चार गतियोंमेंसे किसी भी एक गतिमें रहनेवाले आत्माके प्रिय अप्रियका अर्थात् परस्परानुषक्त जो सुख तथा दुःख है; उन दोनोंका अपहति (अभाव) नास्ति ( नही है ) इस कारण उन चारों गतियोंमेंसे किसी भी गतिमें रहनेवाले जीवके नियमसे सुख और दुःख ये दोनों होने चाहिये । [' प्रियाप्रिय ' यहां पर जो द्वंद्वसमास किया गया है; उससे सुख तथा दुःखके परस्परानुषक्तताका ग्रहण होता है ] और 'वसन्त' मुक्ति के स्थान में विराजमान 'अशरीरं' मुक्त आत्माको 'वा' ही 'प्रियाप्रिये' परस्परानुषक्त सुख तथा दुःख, ये दोनों ' न स्पृशतः ' नहीं स्पर्श करते हैं ( यहां वा शब्द एवकारके अर्थ में है । )
इदमत्र हृदयम् । यथा किल संसारिणः सुखदुःखे परस्परानुपक्ते स्यातां न तथा मुक्तात्मनः । किंतु केवलं सुखमेव । दुःखमूलस्य शरीरस्यैवाऽभावात् । सुखं त्वात्मस्वरूपत्वादवस्थितमेव । स्वस्वरूपावस्थानं हि मोक्षः । अत एवचाऽशरीरमित्युक्तम् । आगमार्थश्चायमित्थमेव समर्थनीयः । यत एतदर्थानुपातिन्येव स्मृतिरपि दृश्यते । सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् - दुष्प्रापमकृतात्मभिः । १ । ” न चायं सुखशब्दो दुःखाभावमात्रे वर्तते । मुख्यसुखवाच्यतायां वाधकाभावात् । अयं रोगाद्विप्रमुक्तः सुखी जात |इत्यादिवाक्येषु च सुखीतिप्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसङ्गाच्च दुःखाभावमात्रस्य रोगाद्विप्रमुक्त इतीयतैवगतत्वात् ।
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भावार्थ यहां पर यह है कि, जैसे- संसारी जीवके परस्परानुषक्त सुखदुःख होते है अर्थात् जैसे संसारमें जीवके सुखके पीछे दुःख और दुःखके पीछे सुख होता है, वैसे परस्परानुषक्त सुख, दुःख मुक्त आत्माके नहीं होते है, किन्तु मुक्त जीवके केवल सुख ही होता है । क्योंकि; दुःखका मूल ( असाधारण कारण ) जो शरीर है, उस शरीरका ही उस मुक्त जीवके अभाव है ।
॥ ५५ ॥
रा. जै.शा.