Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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IN/ नाश होता है, मिथ्याज्ञानको नष्ट होनेपर राग, द्वेष और मोहरूप दोषोंका नाश होता है । [ स्मरण रहै कि, ईप्या आदि दोषोंका बाराग, द्वेष, मोहमें ही अन्तर्भाव है । ] दोषोंको नष्ट होने पर प्रवृत्तिका अर्थात् मन वचन तथा कायके व्यापारका नाश होता है ।
प्रवृत्तिका अभाव होनेसे जन्म ( भव ) का नाश होता है । और जन्मका नाश होनेपर इकवीस २१ प्रकारका जो दुःख है; वह नष्ट होता है. ऐसा क्रम है। और बुद्धि १, सुख २, दुःख ३, इच्छा ४, द्वेष ५, प्रयत्न ६, धर्म ७, अधर्म ८, तथा संस्कार ९|| नामक जो आत्माके नौ विशेष गुण है, वे, इन मिथ्याज्ञानादिकमें ही अन्तर्गत है; इसकारण मिथ्याज्ञानादिकोंका नाश हुआ तो बुद्धिसुखादिकका भी नाश हो ही गया । और बुद्धि मिथ्या ज्ञानरूप है; अतः यदि ज्ञानको आत्मासे अभिन्न मानें तो जिस समय बुद्धिका नाश हो; उसी समय आत्माका भी नाश हो जावे । इस कारण 'ज्ञान आत्मासे भिन्न है ' यह मानना ही युक्ति संगत है।
तथा न संविदित्यादि । मुक्तिर्मोक्षो न संविदानन्दमयी न ज्ञानसुखरूपा । संविद्ज्ञानं आनन्दः सौख्यं ततो इन्द्रः संविदानन्दौ प्रकृतौ यस्यां सा संविदानन्दमयी। एतादृशीन भवति।बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काररूपाणां नवानामात्मनो वैशेषिकगुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्ष इति वचनात् । चशब्दः पूर्वोक्ताभ्युपगमद्वयसमु
चये । ज्ञानं हि क्षणिकत्वादनित्यं सुखं च सप्रक्षयतया सातिशयतया च न विशिष्यते संसारावस्थातः । इति तदु-1 |च्छेदे आत्मस्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति । प्रयोगश्चात्र । नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते संतानत्वात्। यो यः सन्तानः स सोऽत्यन्तमुच्छिद्यते। यथा प्रदीपसन्तानः। तथा चायं तस्मादत्यन्तमुच्छिद्यत इति । तदुच्छेद एव महोदयो न कृत्स्नकर्मक्षयलक्षण इति । " न हि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति । " " अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः।" इत्यादयोऽपि वेदान्तास्तादृशीमेवमुक्तिमादिशन्ति । अत्र हि प्रियाप्रिये सुखदुःखे | ते चाशरीरं मुक्तं न स्पृशतः।
अब ‘न संवित्' इत्यादिरूप काव्यके तृतीयचरणकी व्याख्या करते है। "मुक्तिः " मोक्ष जो है; वह " संविदानन्द-10 मयी" सवित् और आनंद ये दोनों जिसमें होवें ऐसी अर्थात् ज्ञान तथा सुखरूप "न" नहीं है। [ यहां पर संवित् और आनंद; इन दोनों शब्दोंका द्वन्द्वसमास किया गया है । ] क्योंकि आत्माके जो नौ ९ वैशेषिक ( विशेषमें होनेवाले ) गुण है।
१ विशेपे भवाः वैशेषिका.सत्ताज्ञाने।