Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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तत्रेदं पृच्छयते । स जगप्रयं निम्मिमाणस्तक्षादिवत्साक्षाद्देहव्यापारेण निमिमीते । यदि वा सङ्कल्पमात्रेण । आद्ये पक्षे एकस्यैव भूभूधरादेविधाने अक्षोदीयसः कालक्षेपस्य सम्भवाद्वंहीयसाऽप्यनेहसा न परिसमाप्तिः। द्वितीयपक्षे तु सङ्कल्पमात्रेणैव कार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किञ्चिद्दूषणमुत्पश्यामः। नियतदेशस्थालायिनां सामान्यदेवानामपि संकल्पमात्रेणैव तत्तत्कार्यसम्पादनप्रतिपत्तेः।
और जो तुमने यह कहा है, कि यदि ईश्वरको सर्वगत ( सव स्थानोंमें रहनेवाला ) न मानकर किसी एक नियत देश ( स्थान ) में रहनेवाला मानें तो अनियत अर्थात् भिन्न २ अनेकदेशोंमें रहनेवाले जो तीनलोकमें व्याप्त पदार्थ है, उनको वह ईश्वर यथावत् न बना सकेगा अर्थात् ईश्वर एक स्थानमें रहकर अनेक स्थानोंमें रहनेवाले घट आदि पदार्थोंको जैसेके तैसे न वना सकेगा । यहां पर हम यह पूछते है कि, तीन जगतको रचता हुआ वह ईश्वर खाती ( वढ़ई ) के समान साक्षात् शरीरके व्यापारसे तीन लोकको बनाता है ? अथवा संकल्प ( इच्छा ) मात्रसे ही तीनलोकको रचता है । यदि कहो कि, ईश्वर साक्षात् शरीरके व्यापारसे तीन जगतको रचता है, तब तो एक ही पृथ्वी, पर्वत आदिके बनानेमें बहुतसा समय लगना संभव है, इसकारण ) | अत्यन्त अधिक कालमें भी तीन जगतकी समाप्ति ( पूर्णता ) न होगी । और संकल्पमात्रसे कार्य करनेरूप दूसरे पक्षको मानने पर || यदि ईश्वर एकदेशमें रहकर भी तीन जगतकी रचना करै; तो उसमें हम कोई भी दूषण नहीं देखते है । क्योंकि हमने नियतदेशमें || रहनेवाले सामान्यदेवोंके भी संकल्पमात्रसे ही उन २ कार्योंका करना खीकार किया है।
किञ्च तस्य सर्वगतत्वेऽङ्गीक्रियमाणेऽशुचिषु निरन्तरसन्तमसेषु नरकादिस्थलेष्वपि तस्य वृत्तिः प्रसज्यते । तथा चाऽनिष्टापत्तिः। अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानाऽऽत्मना सर्वजगत्रयं व्यामोतीत्युच्यते तदाऽशुचिरसास्वादादीनामप्युपलम्भसम्भावनात्, नरकादिदुःखस्वरूपसंवेदनाऽऽत्मकतया दुःखाऽनुभवप्रसङ्गाच्चाऽनिष्टापत्तिस्तुल्यैवेति चेत् । तदेतदुपपत्तिभिः प्रतिक मशक्तस्य धूलिभिरिवावकरणम् । यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थलस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति । न पुनस्तत्र गत्वा । तत्कुतो भवदुपालम्भः समीचीनः । नहि भवतोऽप्यशुचिज्ञानमात्रेण तद्रसास्वादाऽनुभूतिः। तद्भावे हि स्रक्चन्दनाऽङ्गनारसवत्यादिचिन्तनमात्रेणैव तृप्तिसिद्धौ तत्प्राप्तिप्रयत्नवैफल्यप्रसक्किरिति ।