Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
View full book text
________________
ख्यायते । तया वृत्त्या समवायसम्बन्धेन तयोर्धर्मधर्मिणोरितरेतरविनिर्लुण्ठितत्वेऽपि धर्मधर्मिव्यपदेश इष्यते । इति नानन्तरोक्तो दोष इति ।
इस प्रकार शास्त्रकारके कहने पर वादी उत्तर देते है कि, " वृत्त्या ” वृत्ति ( समवाय ) से " अस्ति" है । भावार्थअयुतसिद्ध [ एक दूसरेके विना कदापि नहीं रहनेवाले ] ऐसे जो आधार्य [ रहने योग्य ] और आधार ( रहनेके स्थानभूत ] | पदार्थ है, उनमें 'यहां यह है' इस ज्ञानका कारणभूत जो संबंध है, उसको समवाय कहते है। वह समवाय एक दूसरेको परस्पर I संबंधित करनेसे अर्थात् अवयवको और अवयवीको, जातिको और व्यक्तिको, गुणको और गुणीको, क्रियाको और क्रियावानको ना || नित्यद्रव्यको तथा विशेषको मिलानेसे समवाय कहलाता है, और द्रव्य १ गुण २ कर्म ३ सामान्य ४ और विशेष ५ इन पांचोंमें ||
रहनेसे वृत्ति कहलाता है । उस समवायसंबंधसे उन दोनों धर्मधर्मियोंके परस्पर भेद होनेपर भी हम धर्मधर्मिव्यवहार मानते है । a अत्राचार्यः समाधत्ते । चेदिति। यद्येवं तव मतिः सा प्रत्यक्षप्रतिक्षिप्ता। यतो न त्रितयं चकास्ति । अयं धर्मी, इमे
चास्य धाः , अयं चैतत्सम्बन्धनिबन्धनं समवाय इत्येतत्रितयं वस्तुत्रयं न चकास्ति ज्ञानविषयतया न प्रतिभासते। यथा किल शिलाशकलयुगलस्य मिथोऽनुसन्धायकं रालादिद्रव्यं तस्मात्पृथक् तृतीयतया प्रतिभासते । नैवमत्र
समवायस्याऽपि प्रतिभानम् । किन्तु द्वयोरेव धर्मधर्मिणोः । इति शपथप्रत्यायनीयोऽयं समवाय इति भावार्थः। al अब आचार्य इस उपर्युक्त वादीकी शंकाका समाधान करते है कि, " चेत् " यदि ऐसी तुम्हारी बुद्धि है, तो वह प्रत्यक्षसे GI
खंडित है अर्थात् तुम जो समवायसंबंधसे धर्मधर्मिभावको सिद्ध करते हो, उसका प्रत्यक्षप्रमाणसे खंडन होता है । क्योंकि "त्रितयं " तीन "न" नहीं " चकास्ति" प्रतिभासते है । अर्थात् यह धर्मी है, ये इस धर्मी के धर्म हैं और यह इन दोनों धर्मधर्मियोंके संबंधका कारणभूत समवाय है, इसप्रकार ये तीन पदार्थ ज्ञानकी विषयतासे प्रतिभासित नहीं होते हैं। अर्थात् जाननेमें नहीं आते है । भावार्थ-जैसे शिला [एक प्रकारके पत्थर के दो टुकड़ोंको जोड़नेवाला राल आदिक द्रव्य तीसरे NT | रूपसे भासता है अर्थात् जैसे शिलाके दो टुकड़ोंका जुदा जुदा ज्ञान होता है, उसी प्रकार उनका संबंध करानेवाला राल आदि | द्रव्य भी भिन्न जाना जाता है । इसी प्रकार यहां समवायका भी प्रतिभास होना चाहिये; परंतु नही होता है; किन्तु धर्म तथा धर्मी | इन दोका ही प्रतिभास होता है । इस कारण धर्म और धर्मीका संबंध करानेवाले समवाय नामक भिन्न पदार्थको जो तुम सिद्ध