Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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या वर्गको गये । १।" इत्यादि । अथवा दही और उड़द इन दोनोंसे मिले हुए भोजनमेंसे कितने कीड़े जुदे २ किये जावें
भावार्थ-जैसे दधिमाषभोजनमें से कीड़ोंको दूर करना कठिन है, उसी प्रकार तुम्हारे आगमके दोषोंका कहना कठिन है। | सो इस प्रकार परस्परविरुद्ध वचनोंका धारक आगम भी उस ईश्वरको सर्वज्ञ नहीं कहता है । और सर्वज्ञ मानने भी || ला विशेष यह है कि, यदि ईश्वर सर्वज्ञ होकर इस स्थावरजंगमरूप जगतको रचता है, तो अपनी इच्छानुसार जगतमें उपद्रवटा
करनेवाले और पीछे दमन करने योग्य ऐसे सुरवैरियों ( दानवों ) को तथा इस ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका खंडन करनेवाले हम | जैसोंको, क्यों रचता है । भावार्थ-यदि ईश्वर सर्वज्ञ है, तो जो दानव जगतमें उपद्रव मचाते है, उनको क्यों रचता है और न
रचता है तो फिर उनका निग्रह क्यों करता है । तथा—आपको न माननेवाले हम जैसोको क्यों रचे अर्थात् ईश्वरने अपने विद्वेषी | IPI जैनियोंको क्यों बनाये । इस कारण वह ईश्वर सर्वज्ञ नहीं है ।
तथा स्ववशत्वं स्वातन्त्र्यं तदपि तस्य न क्षोदक्षमम् । स हि यदि नाम स्वाधीनः सन् विश्वं विधत्ते परमकारुणिकश्च त्वया वर्ण्यते । तत्कथं सुखितदुःखिताद्यवस्थाभेदवृन्दस्थपुटितं घटयति भुवनम् , एकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव लातु किं न निर्मिमीते । अथ जन्मान्तरोपार्जिततत्तत्तदीयशुभाऽशुभकर्मप्रेरितः संस्तथा करोतीति दत्तस्तर्हि स्वव|शत्वाय जलाञ्जलिः । कर्मजन्ये च त्रिभुवनवैचित्र्ये शिपिविष्टहेतुकविष्टपसृष्टिकल्पनायाः कष्टैकफलत्वादस्मन्मतमेवाऽङ्गीकृतं प्रेक्षावता। तथाचायातोऽयं “घट्टकुट्यां प्रभातम्" इति न्यायः। किञ्च प्राणिनां धर्मांधावपेक्षमाणश्चेदयं सृजति प्राप्तं तर्हि यदयमपेक्षते तन्न करोतीति । न हि कुलालो दण्डादि करोति । एवं कर्मापेक्षश्चेदीश्वरो
जगत्कारणं स्यात्तर्हि कर्मणीश्वरत्वमीश्वरोऽनीश्वरः स्यादिति । al तथा “ ईश्वर खवश अर्थात् खतंत्र है " ऐसा जो तुमने कहा है, वह भी विचारको नहीं सह सकता है, अर्थात् मिथ्या है। | क्योंकि यदि वह ईश्वर स्वाधीन होकर जगतको रचता है और अत्यंत करुणाभावको धारण करता है, ऐसा तुम कहते हो तो |सुख तथा दुःख आदि रूप जो अवस्थाओंके भेद है, उनके समूहसे भरे हुए जगतको क्यों बनाता है ? और एकान्त ( सर्वथा ) | सुख तथा संपदाओंसे मनोहर जगतको क्यों नहीं रचता है ? भावार्थ-जो करुणावान् तथा स्वाधीन होता है, वह जीवोंको सुख || देनेवाले ही कार्योंको करता है और तुम्हारा ईश्वर जीवोंको सुख, तथा दुःख आदि देनेरूप जगतको रचता है, इस कारणसे विदित