Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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द्वादम.
॥३०॥
y और विशेष यह है कि, ईश्वरके सर्वगतपना अङ्गीकार करनेपर निरन्तर महा अंधकारसे व्याप्त जो नरक आदि स्थान है, उनमें
भी उस ईश्वरके रहनेका प्रसंग होगा और ऐसा होनेसे तुम्हारे अनिष्टापत्ति होगी। अब कदाचित् तुम यह कहो कि जब यू परमात्मा ज्ञानरूपसे तीनलोकको व्याप्त करता है, ऐसा आप कहते है, तब सर्वज्ञके अपवित्र रसके आखाद आदिके ज्ञानकी संभावना
होनेसे और नरक आदिमें जो दुःख है, उनके खरूपको जाननेके कारण दुःखोंके अनुभवका प्रसंग होनेसे आपके पक्षमें भी अनिष्टाभूपत्ति समान ही है। भावार्थ-ईश्वरको शरीरसे सर्वव्यापी माननेरूप हमारे पक्षमें जैसे अनिष्टापत्ति होती है, उसीप्रकार
ईश्वरको ज्ञानरूपसे सर्वव्यापी स्वीकार करनेरूप आपके पक्षमें भी अनिष्टापत्ति होती है । सो यह तुम्हारा कथन जैसे उपायोंसे + शत्रुको निवारण करनेमें असमर्थ पुरुष धूल फैकता है, उसके समान है । क्योंकि, ज्ञान अप्राप्यकारी है अर्थात् जहां पर ज्ञेय (जाधू नने योग्य ) पदार्थ स्थित है, वहां पर ज्ञान नहीं जाता है, इस कारण ज्ञान जो है सो अपने स्थलमें (आत्मामें ) स्थित हुआ ही
ज्ञेयको जानता है । और ज्ञेयके स्थानमें जाकर ज्ञेयको नहीं जानता है । इसलिये तुमने जो हमारे पक्षमें अनिष्टापत्ति र दी है, वह किस प्रकारसे उत्तम हो सकती है अर्थात् तुमने जो दोष दिया है, वह मिथ्या है । क्योंकि तुमको भी तो अशुचि ।
पदार्थके ज्ञानमात्रसे उसके रसके आस्वादनका अनुभव नहीं होता है । और यदि कहो कि हमको अशुचिपदार्थके जाननेसे उसके रसका ज्ञान भी हो जाता है, तो इस प्रकार माननेपर पुष्पमाला, चंदन, स्त्री और जलेबी आदि पदार्थोंके ज्ञानमात्रसे ही तुमको तृप्ति हो जावेगी, इसकारण उन माला आदि पदार्थोंकी प्राप्तिके अर्थ जो प्रयत्न करते हो, उन प्रयत्नोंकी निष्फलताका प्रसंग होगा। भावार्थ-जैसे तुम अशुचि पदार्थके ज्ञानसे उसके रसका ज्ञान होना मानते हो, उसीप्रकार तुमको माला आदिके ज्ञानसे ही माला आदिकी इच्छाकी पूर्ति भी माननी पड़ेगी, और ऐसा मानने पर माला आदिकी प्राप्तिके लिये जो तुम प्रयत्न करते हो, वे निष्फल हो जायेंगे।
यत्तु ज्ञानात्मना सर्वगतत्वे सिद्धसाधनं प्रागुक्तम् । तच्छक्तिमात्रमपेक्ष्य मन्तव्यम् । तथा चवतारोभवन्ति । 'अस्य मतिः सर्वशास्त्रेषु प्रसरति' इति । न च ज्ञानं प्राप्यकारि । तस्यात्मधर्मत्वेन बहिनिर्गमाऽभावात् । बहिनिर्गमे चात्मनोऽचैतन्यापत्त्या अजीवत्वप्रसङ्गः। न हि धर्मो धर्मिणमतिरिच्य वचन केवलो विलोकितः। यच्च परे दृष्टान्तयन्ति । यथा सूर्यस्य किरणा गुणरूपा अपि सूर्यान्निष्क्रम्य भुवनं भासयन्त्येवं ज्ञानमप्यात्मनः
॥३०॥