Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादमं.
॥२९॥
उन कुविंद, कुंभकार आदिका कर्तृत्व प्रत्यक्षसिद्ध है अर्थात् हम प्रत्यक्षमें कुबिंद आदिको पट आदि बनाते हुए देखते है, | इसकारण उन कुविंदादिका पटादिकर्तृत्व कैसे छिपा सकते है, तो उन कीटिका आदिने तुम्हारा क्या अपराध किया है ? जो तुम उनके उस असाधारण परिश्रमसे सिद्ध होनेयोग्य कर्तृत्वको एक ही क्षणमें निरादरताके साथ दूर करते हो । | इस कारण परस्पर समतिमें भेद होनेके भयसे जो तुम्हारा ईश्वरको एक मानना है, वह भोजन आदि सबधी व्ययके भयसे कृपणपुरुषका अत्यंत प्यारे स्त्रीपुत्रोंको छोड़कर शून्य महावनको सेवन करने के समान है । भावार्थ — जैसे कृपण पुरुष खर्चके डरसे स्त्री आदिको छोड़कर निर्जन वनमें चला जावे, उसी प्रकार तुम्हारा मतिभेदके भयसे ईश्वरको एक मानना है ।
तथा सर्वगतत्वमपि तस्य नोपपन्नम् । तद्धि शरीरात्मना ज्ञानात्मना वा स्यात् । प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगत्रयस्य व्याप्तत्वादितरनिर्मेय पदार्थानामाश्रयानवकाशः । द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता । अस्माभिरपि निरतिश| यज्ञानात्मना परमपुरुषस्य जगत्रयक्रोडीकरणाभ्युपगमात् । यदि परमेवं भवत्प्रमाणीकृतेन वेदेन विरोधः । तत्र हि शरीरात्मना सर्वगतत्वमुक्तम् “विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिरुतविश्वतः पाद्” इत्यादि श्रुतेः ।
और जो तुमने ईश्वरके सर्वगतपना माना है, वह भी उस ईश्वरके सिद्ध नहीं है । क्योंकि, वह ईश्वर शरीररूपसे सर्वगत है ? वा ज्ञानरूपसे ? यदि शरीररूपसे ईश्वरको सर्वगत कहोगे तो उस ईश्वरके शरीरसे ही तीन जगत व्याप्त हो जायेगा. इस कारण जगतमें अन्य जो निर्मेय ( ईश्वरके बनाने योग्य ) पदार्थ है, उनको रहनेके लिये कोई स्थान न मिलेगा । यदि कहो कि, ईश्वर ज्ञानरूपसे सर्वगत है, तब तो साध्यकी सिद्धि है अर्थात् जिसको हम सिद्ध करना चाहते थे, वह सिद्ध हो गया । क्योंकि हम भी परमात्माको निरतिशयज्ञान ( केवलज्ञान ) रूपसे तीन जगतको गोदमें ( ज्ञानके विषय में) करनेवाला मानते है । भावार्थ - जैसे तुम ईश्वरको ज्ञानरूपसे सर्वगत मानते हो, उसी प्रकार हम भी श्रीजिनेन्द्रको ज्ञानरूपसे सर्वगत मानते हैं । इसकारण इस माननेमें तुम्हारे हमारे तो परस्पर कोई विरोध नहीं है । परन्तु ऐसा मानने पर तुमने जिस वेदको प्रमाण कर रक्खा है, उससे तुमको विरोध होता है । क्योंकि, तुम्हारे प्रमाणीभूत वेदमें "ईश्वर- सर्वस्थलोंमें नेत्रका धारक, सर्वत्र मुखका धारक, समस्त स्थानोंमें हस्तका धारक तथा सब जगह चरणका धारक है " इत्यादि श्रुतिसे ईश्वरको शरीररूपसे सर्वगत कहा है । यच्चोक्तं तस्य प्रतिनियतदेशवर्त्तित्वे त्रिभुवनगतपदार्थानामनियतदेशवृत्तीनां यथावन्निर्माणानुपपत्तिरिति ।
रा.जै.शा.
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