Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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सकाशाद्वहिर्निर्गत्य प्रमेयं परिच्छिनत्तीति । तत्रेदमुत्तरम् । किरणानां गुणत्वमसिद्धम् । तेषां तैजसपुद्गलमय
त्वेन द्रव्यत्वात् । यश्च तेषां प्रकाशात्मा गुणः स तेभ्यो न जातु पृथग् भवतीति । al और जो हमने पहिले ईश्वरको ज्ञानरूपसे सर्वव्यापी माननेमें सिद्धका साधन कहा है, वह भी शक्तिमात्रकी अपेक्षा करके स्वीकार |
करना चाहिये अर्थात् ईश्वरका ज्ञान सव पदार्थोंके जाननेकी शक्तिको धारण करता है, ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि " इस
पुरुषकी बुद्धि सब शास्त्रोंमें फैलती हुई है " ऐसा कहनेवाले कहा करते है । भावार्थ-जैसे किसी मनुप्यकी बुद्धिकी शक्तिको का देखकर लोग कहते है कि, इसकी बुद्धि सब शास्त्रोंमें फैलती है, उसीप्रकार ईश्वरके ज्ञानकी शक्तिको देख कर ही हमने भी कहा है। कि, ईश्वरका ज्ञान सब जगह व्याप्त है । और ज्ञान प्राप्यकारी (ज्ञेयके समीप जाकर ज्ञेयको जाननेवाला) नहीं है। क्योंकि, Ke ज्ञान आत्माका धर्म होनेसे आत्माके बाहर नहीं जा सकता है । और यदि ज्ञान आत्माके बाहर जावे तो आत्माके अचेतन पनेकी प्राप्ति होनेसे अजीवत्वका प्रसंग आवे अर्थात् ज्ञानके चले जानेपर जीव अजीव हो जावे।क्योंकि, धर्मीको छोड़कर केवल धर्म कही भी नहीं देखा जाता है अर्थात् धर्मीके विना धर्म कहीं भी नहीं रहता है । और जो वैशेषिक दृष्टान्त देते है कि, जैसे सूर्यकी किरणें | गुणरूप है, तो भी सूर्यसे निकलकर जगतको प्रकाशित करती हैं, उसी प्रकार ज्ञान भी आत्मासे बाहर निकलकर ज्ञेयको जानता है। यहां पर यह उत्तर है कि, किरणोंके गुणपना असिद्ध है। क्योंकि, किरणें तेजके पुद्गलरूप होनेसे द्रव्य है। और जो उन किरणोंका प्रकाशस्वरूप गुण है, वह उन पुद्गलद्रव्यरूप सूर्यकी किरणोंसे कदाचित् भी जुदा नहीं होता है ।।
तथा च धर्मसङ्ग्रहिण्यां श्रीहरिभद्राचार्यपादाः । " किरणा-गुणा न, दवं तेसिं पयासो-गुणो, न वा दवं जं णाणं आयगुणो कहमदवो स अन्नत्थ ।१ । गन्तूण न परिछिंदइ णाणं णेयं तयम्मि देसम्मि । आयत्थं मिय नवरं अचिंतसत्तीउ विण्णेयं । २ । लोहोवलस्स सत्ती आयत्था चेव भिन्नदेसम्मि । लोहं आगरिसंती दीसइ इह
किरणा-गुणा न, द्रव्य तेषां प्रकाशो-गुणो, न वा द्रव्यम् । यज्ज्ञानमात्मगुणः कथमद्न्यः सः अन्यत्र । १। गत्वा न परिच्छिनत्ति ज्ञान ज्ञेयं तस्मिन्देशे । आत्मस्थमेव नवरं अचिन्त्यशक्त्या तु विज्ञेयम् । २। लोहोपलस्य शक्तिः आत्मस्थैव भिन्न देशमपि । लोहमाकती दृश्यत इह कार्यप्रत्यक्षा । ३ । एवमिह ज्ञानशक्तिः आत्मस्थैव हन्त लोकान्तम् । यदि परिच्छिनत्ति सर्व को नु विरोधो भवेत्तन्न । ४ । इतिच्छाया ॥